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________________ १२६ सूत्रकृतांग सूत्र के लिए किसी बौद्ध ने कहा- कोमल गुदगुदाती शय्या, प्रातः काल बिस्तर से उठते ही दूध आदि का पान, मध्याह्न में भोजन और अपरान्ह में फिर शरबत, आधी रात में किसमिस और मिश्री, इन समस्त सुखोपभोगों के बाद अन्त में मोक्ष की प्राप्ति । ये सब बातें शाक्यपुत्र बुद्ध ने अनुभव की हैं । वेदान्तदर्शन ने एकमात्र ब्रह्मज्ञान को ही मोक्षप्राप्ति का कारण बताकर ब्रह्म में लय हो जाने को मुक्ति कहा है ।" उनकी मुक्ति के लिए कुछ करना धरना नहीं है । चार्वाक तो मुक्ति को मानता ही नहीं है । वह तो यही कहता है- समस्त दुःखों से मुक्ति का उपाय यह है कि जब तक जीओ, सुख से जीओ, कर्ज करके घी पीओ । शरीर के भस्म हो जाने के बाद फिर किसी लोक में गमन या पुनरागमन नहीं होता । इस प्रकार सभी मत, दर्शन या वाद वाले अपने-अपने माने हुए मतादि के ममत्व में पड़कर अपने मतादि की ओर दूसरों को आकर्षित करने के लिये कहा करते हैं— 'इस दर्शन को स्वीकार करने पर समस्त दुःखों से व्यक्ति मुक्त हो जाता है ।' यही शास्त्रकार का आशय है । अगारमावसंता वि-जब उनसे पूछा जाता है कि क्या घर-गृहस्थी में रहते हुए अपने कुटुम्ब-परिवार ( माता-पिता, स्त्री, पुत्र, भाई-बहनों) के बीच रहते हुए उनके मोह-ममत्व में बँधा हुआ व्यक्ति भी क्या समस्त दुखों से मुक्त हो जाता है ? या मुक्ति प्राप्ति कर लेता है ? इस प्रश्न का कारण यह भी सम्भव है कि पूर्व - काल में और अब भी कुछ मत इस विचारधारा के रहे हैं कि गृहस्थ को मुक्ति या दु:ख-मुक्ति नहीं हो सकती, क्योंकि वह अनेक गार्हस्थ्य प्रपंचों में रचा-पचा रहता है, गृहस्थ का पालन करते हुए वह हिंसा, झूठ, चोरी आदि पापों से सर्वथा निवृत्त नहीं हो सकता इसलिए गृहस्थ के लिए स्वर्गादि की प्राप्ति तो बताते थे, किन्तु मुक्ति की प्राप्ति नहीं । इसी सन्दर्भ में उक्त प्रश्न पूछे जाने पर तथाकथित दार्शनिक झटपट यह कह दिया करते थे कि हमारे मत को स्वीकार करने पर तुम गृहस्थ में रहते हुए भी सर्व दुखों से मुक्त हो सकोगे । यह इस पंक्ति का तात्पर्य है । अरण्णा वावि पव्वया - प्राचीन काल में कुछ विचारक ऐसे भी थे, जो गृहस्थाश्रम को अधिक महत्व देते थे, उनकी दृष्टि में गृहस्थाश्रम की जिम्मेदारियों १. मृदवी शय्या प्रातरुत्थाय पेया, भक्त मध्ये, द्राक्ष खण्डं शर्करा चार्धरात्र, मोक्षश्चान्ते २. ब्रह्मण्येव लयान्मुक्तिः । ३. यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमन कुत: ? ॥ Jain Education International पानकं चापरान्हे | शाक्यपुत्र ेण दृष्टः ॥ For Private & Personal Use Only - वेदान्त www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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