________________
समय : प्रथम अध्ययन ---प्रथम उद्देशक
१२१ इसी प्रकार क्रियावान (आत्मा) को क्षण-विनश्वर मानने से क्रियावान और फलवान के बीच में काफी फासला (समय का) हो जाएगा। इस कारण जो पदार्थ क्रिया करता है और जो पदार्थ उस क्रिया का फल भोगता है, इन दोनों का परस्पर अत्यन्त भेद होने के कारण कृतनाश और अकृताभ्यागम दोष भी आते हैं । जिस आत्म-क्षण ने क्रिया की, वह उसी समय नष्ट हो गया, वह कालान्तर में उत्पन्न होने वाले फल को किसी भी प्रकार भोग नहीं सकेगा। यह 'कृतनाश' नामक दोष हुआ। जो फल भोगता है, उसने वह क्रिया नहीं की, इसलिए 'अकृताभ्यागम' दोष हुआ।
___ यदि कहो कि ज्ञान-सन्तान (ज्ञान की परम्परा) एक है, इसलिए जो ज्ञान सन्तान क्रिया करता है वही उसका फल भोगता है, इसलिए कृतनाश व अकृताभ्यागम नामक दोष नहीं आते, तो यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि वह ज्ञानसन्तान भी प्रत्येक ज्ञानों से भिन्न नहीं है । अत: उस ज्ञानसन्तान से भी कुछ फल नहीं है।
यदि कहो कि पूर्व-पदार्थ उत्तर-पदार्थ में अपनी वासना को स्थापित करके नष्ट होता है, जैसे कि कहा है--जिस ज्ञानसन्तान में कर्मवासना स्थित रहती है, उसी में 'फल उत्पन्न होता है। जिस कपास में लाली होती है, उसी में फल उत्पन्न होता है, तो यहाँ भी यह विकल्प पैदा हो जाएगा कि वह वासना उस क्षणिक पदार्थ से भिन्न या अभिन्न है ? यदि भिन्न है तो वह वासना उस क्षणिक पदार्थ को बासित नहीं कर सकती, यदि वह अभिन्न है तो उस क्षणिक पदार्थ के समान वह भी क्षण-क्षयिणी है।
अतः आत्मा न होने पर सुख-दुःख का भोग नहीं हो सकता। परन्तु सुखदुःख के भोग का अनुभव होता है, अतः आत्मा अवश्य है, यह सिद्ध होता है।
यदि यह कहें कि क्षणमात्र स्थित होने वाले पहले पदार्थ से उत्तर-पदार्थ की उत्पत्ति होती है। इसलिये क्षणिक पदार्थों में परस्पर कार्य-कारणभाव हो सकता है तो यह कथन भी युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि यहाँ प्रश्न होगा कि पहला क्षणिक पदार्थ स्वयं नष्ट होकर उत्तर-पदार्थ को उत्पन्न करता है, अथवा नष्ट न होकर
१. क्रिया करने वाला अपनी क्रिया का फल नहीं भोगता, यह कृतनाश दोष है
और जो क्रिया नहीं करता है, वह उस क्रिया का फल भोगता है, यह अकृता
भ्यागम दोष है। २. यस्मिन्नेव हि सन्ताने, आहिता कर्मवासना ।
फलं तत्रैव संधत्त, कार्पासे रक्तता यथा ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org