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________________ १२२ सूत्रकृतांग सूत्र उत्पन्न करता है ? स्वयं नष्ट होकर तो उत्तर-पदार्थ को उत्पन्न नहीं कर सकता, क्योंकि जो स्वयं नष्ट हो गया है, वह दूसरे को किस तरह उत्पन्न कर सकता है ? यदि कहो कि स्वयं नष्ट न होकर पहला पदार्थ उत्तर- पदार्थ को उत्पन्न करता है, तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि उत्तर - पदार्थ के काल में पूर्व पदार्थ का व्यापार विद्यमान होने से तुम्हारा क्षणभंगवादरूप सिद्धान्त ही नहीं रह सकता है । यदि कहें कि तराजू का एक पलड़ा, स्वयं नीचा होता हुआ, दूसरे पलड़े को ऊपर उठाता है, उसी तरह पहला पदार्थ स्वयं नष्ट होता हुआ उत्तर-पदार्थ को उत्पन्न करता है तो यह बात भी युक्तिहीन है । क्योंकि ऐसा मानने पर आप स्वयं दोनों पदार्थों को एक काल में स्थित रहना स्वीकार करते हैं, जो क्षणभंगवाद सिद्धान्त के प्रतिकूल है । ऐसी दशा में उत्पत्ति और विनाश एक साथ मानने पर उनके धर्मीरूप पूर्व और उत्तर- पदार्थ की भी एक काल में स्थिति सिद्ध होगी । अगर उत्पत्ति और विनाश को पदार्थों का धर्म न मानो तो उत्पत्ति और विनाश कोई वस्तु ही सिद्ध न होंगे । पदार्थों की उत्पत्ति ही उनके नाश का कारण है- यह कथन भी दोष- दुष्ट है । यदि पदार्थों की उत्पत्ति ही उनके नाश का कारण है तो किसी भी पदार्थ की उत्पत्ति ही न होनी चाहिए, क्योंकि उनके विनाश का कारण (उत्पत्ति) उनके निकट विद्यमान है । आपने पदार्थ को क्षणिक मान कर उस पदार्थ का सर्वथा अभाव माना है, वह भी ठीक नहीं है । अभाव शब्द का यहाँ प्रसज्यात्मक नञ् समास मान कर अर्थ करने पर अघट कहने से मुद्गर आदि के प्रहार से घट आदि का विनाश मानना पड़ेगा । उसी तरह आत्मा का भी अभाव सिद्ध हो जाएगा । इसलिए अभाव का यहाँ पर्युदास नञ् समास की दृष्टि से अर्थ करने पर अघट कहने से घट से भिन्न कपाल (ठीकरा ) रूप पदार्थ को मुद्गर उत्पन्न करता है और घट परिणामी अनित्य है, इसलिए वह कपाल रूप में परिणत होता है । क्षणिकवाद की विस्तृत चर्चा पूर्व गाथा में की गई है, इसलिए हम पुनः पिष्टपेषण न करके संक्षेप में बताना चाहते हैं कि आत्मा को कूटस्थनित्य मानने पर ये सब दोष आते हैं । क्षणिक होने से अभावरूप आत्मा मानी जाएगी तो सारी १. जैसे कि व्याकरण - शास्त्र में बताया है प्रसज्यकौ । नञर्थोद्धौ समाख्यातौ पर्युदास पर्युदासः सहग्राही, प्रसज्यस्तु निषेधकृत् ॥ नव् समास के दो अर्थ कहे गए हैं – पर्युदास और प्रसज्य । पर्युदास सदृश ( तद्भिन्न तत्सदृश ) का ग्राही है, और प्रसज्य निषेध का ग्राहक है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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