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समय : प्रथम अध्ययन - प्रथम उद्दे शक
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है ? गेहूँ, जौ, चना, घट, पट आदि क्यों नहीं बना लिये जाते ? अतः प्रत्येक कर्म के लिये उपादान को ग्रहण करना पड़ता है, सबसे सबकी उत्पत्ति नहीं होती । शक्त से ही शक्य की उत्पत्ति होती है । मनुष्य की शक्ति से जो साध्य होता है, उसी को वह करता है । मनुष्य की शक्ति से जो साध्य नहीं होता, उसे वह नहीं करता । यदि असत् की उत्पत्ति हो तो, अशक्य पदार्थ को भी कर्ता क्यों नहीं कर देता ? अतः असत् की उत्पत्ति नहीं होती, यह सिद्ध है । फिर यह भी है कि कारण में स्थित i ( सत) पदार्थ की ही उत्पत्ति होती है । जैसे पीपल के बीज से पीपल ही होता है, आका अंकुर नहीं । अगर कारण में स्थित न रहने वाला भी कार्य उत्पन्न हो तो पीपल के बीज से आम का अंकुर पैदा हो जाना चाहिए। मृत्पिण्ड में घड़ा विद्यमान रहता है, क्योंकि घड़ा बनाने के लिए मृत्पिण्ड को ही ग्रहण करना पड़ता है । यदि असत् की भी उत्पत्ति होती तो वह घट जिस किसी पदार्थ से बना लिया जाता । उसके लिए खास तौर से मृत्पिण्ड ही लेने की क्या आवश्यकता थी ? अत: निश्चित है कि कारण में विद्यमान कार्य ही उत्पन्न होता है ।
इसलिए पृथ्वी आदि पंच महाभूत और छठा आत्मा ये छहों पदार्थ नित्य “हैं । ऐसा नहीं है कि ये पहले अभाव रूप में थे, फिर भावरूप में हो गये हों । सांख्यदर्शन के सत्कार्यवाद में उत्पत्ति और विनाश सिर्फ आविर्भाव तिरोभाव के अर्थ में हैं । इसलिए सब पदार्थों का कभी सर्वथा अभाव नहीं होता । जगत् में उत्पत्ति और विनाश का जो व्यवहार होता है, वह भी वस्तु की प्रकटता और अप्रकटता को लेकर होता है ।
सांख्य के एकान्तनित्यत्व का खण्डन
सांख्य, वेदान्त, वैशेषिक आदि का एकान्तभूत नित्यत्व या अनित्यत्व वाद यथार्थ नहीं है; क्योंकि सभी पदार्थों को एकान्तनित्य मानने पर आत्मा में कर्तृत्व परिणाम नहीं हो सकेगा । आत्मा में कर्तृत्व परिणाम न होने पर उसमें कर्मबन्ध कैसे हो सकेगा ? कर्मबन्ध न होने पर सुख-दुखरूप कर्मफलभोग कैसे होगा ? वह कौन करेगा ? क्योंकि आत्मा को अकर्ता मानने पर कर्मबन्ध का सर्वथा अभाव हो जाएगा । ऐसी दशा में सुख-दुख का अनुभव कौन करेगा ?
अगर असत् की उत्पत्ति कथंचित् न मानें तो पूर्वभव का परित्याग करके उत्तरभव की उत्पत्ति रूप जो आत्मा की चार प्रकार की गति और मोक्ष गति रूप पंचम गति बताई जाती है, वह कैसे सम्भव होगी ? इस प्रकार आत्मा को अप्रच्युत, अनुत्पन्न एवं स्थिर एक स्वभाव का मानने पर उसका मनुष्य- देव आदि गतियों में गमन - आगमन संभव नहीं हो सकेगा और स्मृति का आदि भी नहीं हो सकेगा । अतः आत्मा को एकान्तनित्य कहना मिथ्या है ।
अभाव होने से जातिस्मरण
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