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सूत्रकृतांग सूत्र
सत् की ही उत्पत्ति होती है, यह एकान्त कथन भी दोषयुक्त है । यदि वह (कार्य) पहले से ही सर्वथा सत् है तो फिर उत्पत्ति कैसी ? और यदि उत्पत्ति होती है तो सर्वथा सत् कैसे? इसीलिए कहा गया है--
कर्मगुणव्यपदेशाः प्रागुत्पत्तन सन्ति यत्तस्मात् ।
कार्यमसद् विज्ञेयं, क्रियाप्रवृत्त श्च कर्तृणाम् ॥ __ अर्थात जब तक घटादि पदार्थों की उत्पत्ति नहीं होती है, तब तक उनके द्वारा जलधारण या जलानयन आदि कार्य नहीं किये जा सकते तथा उनके गुण भी नहीं पाए जाते । अतः उनका घट आदि नाम भी तब तक उच्चरित नहीं होता। मृत्पिण्ड से जल नहीं लाया जा सकता, न जलधारण किया जा सकता है तथा वह घट के गुणों से भी युक्त नहीं होता, इसलिए मिट्टी के पिण्ड को कोई घड़ा नहीं कहता । घट बनाने वाले की प्रवृत्ति भी घट न होने पर ही होती है, घट बन जाने पर नहीं होती । अतः उत्पत्ति से पूर्व कार्य को असत् समझना चाहिए।
अतः आत्मा आदि सभी पदार्थों को कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य तथा कथंचित् सत्, कथंचित् असत् इस प्रकार सदसत्कार्यवाद न मानना ही आत्मषष्ठवादियों का मिथ्यात्व है । एकान्त आग्रह पकड़ना ही मिथ्यात्व है । अतः बुद्धिशाली विवेकी व्यक्तियों को प्रत्येक पदार्थ द्रव्यरूप से सत् और पर्यायरूप से असत् इस प्रकार (नित्यानित्यरूप) सदसत्कार्य की उत्पत्ति माननी चाहिए।
सभी पदार्थ क्षण-क्षण में बदलते रहते हैं तथापि उनमें भेद प्रतीत नहीं होता। इसका कारण यह है कि पदार्थों का अपचय-उपचय होते हुए भी उनकी आकृति और जाति सदा वही बनी रहती है तथा कारण के साथ कार्य का एकान्त भेद या अभेद दोनों नहीं है, यही मानकर चलना चाहिए। ___ अब असत्कार्यवादी बौद्धमत का स्वरूप और उसका विश्लेषण करते हुए शास्त्रकार कहते हैं
मूल पाठ पंच खंधे वयंतेगे, बाला उ खणजोइणो । अण्णो अणण्णो णेवाहु, हेउयं च अहेउयं ॥१७॥
संस्कृत छाया पंच स्कन्धान् वदन्त्येके, बालास्तु क्षणयोगिनः । अन्यमनन्यं नैवाहुर्हेतुकञ्चाहेतुकम्
॥१७॥
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