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________________ ११२ सूत्रकृतांग सूत्र कभी च्युत नष्ट नहीं होते । यानी ये दोनों कोटि के अचेतन-चंतनात्मक पदार्थ अपनेअपने स्वभाव को नहीं छोड़ते । पृथ्वी आदि पंचभूत अपने स्वभाव का परित्याग न करने के कारण नित्य ही हैं । श्रुति में भी कहा गया है - "कदाचिदनी दृशं जगत् ।" अर्थात्-- यह जगत कदापि और तरह का नहीं होता, इसलिए शाश्वत है तथा आत्मा भी किसी का किया हुआ नहीं है, इसलिए वह भी नित्य ही है। जैसे कि भगवद्गीता में कहा है नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ॥ अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते । नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥" इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, पानी इसे भीगा नहीं सकता, हवा इसे सुखा नहीं सकती। अत: यह आत्मा अच्छेद्य (छेदन न कर सकने योग्य) अदाह्य (जल न सकने योग्य) बिकार पैदा न होने योग्य, नित्य, सर्वव्यापी, स्थिर, अविचल और सनातन कहलाता है। अब लीजिए सांख्यदर्शन के सत्कार्यवाद की युक्तियाँ---पृथ्वी आदि पाँच भूत तथा आत्मा नित्य है, इसलिए यही सिद्धान्त मानना चाहिए कि असत् वस्तु की कभी उत्पत्ति नहीं होती, सत्य पदार्थ की ही सदा उत्पत्ति होती है। क्योंकि जो पदार्थ असत् है, उसमें कर्ता-करण आदि कारकों का व्यापार नहीं होता। सत्पदार्थ में ही ऐसा हो सकता है । इसीलिए सांख्यकारिका में कहा है असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाऽभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥ अर्थात्---जो वस्तु है ही नहीं, असत् है, वह की (बनाई) नहीं जा सकती, जैसे गधे के सींग हैं नहीं तो कहाँ से बनाये जायेंगे ? यदि असत् पदार्थ भी उत्पन्न या निर्मित होने लगे तो आकाश-पुष्प या खरगोश के सींग भी उत्पन्न होने लगेंगे । दूसरी बात कर्ता किसी वस्तु को बनाने के लिए उसके उपादान को ही ग्रहण करता है। यदि असत् की भी उत्पत्ति होने लगे तो उपादान के ग्रहण की क्या आवश्यकता रहेगी ? फिर तो किसी भी वस्तु से कोई भी वस्तु बनाई जाने लगेगी। अन्यथा तेल निकालने के लिए तिल ग्रहण न करके मिट्टी या बालू से भी तेल निकाला जाने लगेगा। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि जिस वस्तु का उपादान विद्यमान हो, उसकी उत्पत्ति हो सकती है, असत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती। यदि असत् पदार्थ की भी उत्पत्ति होती हो तो वृक्ष की लकड़ी से पुतली ही क्यों बनाई जाती है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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