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समय : प्रथम अध्ययन-प्रथम उद्देशक सकता, यह कथन भी यथार्थ नहीं है। क्योंकि किसी खास पुरुष की अपेक्षा से तो यह कथन ठीक हो सकता है, किन्तु सर्वसामान्य पुरुषों की अपेक्षा से यह कथन उचित नहीं है । अतः विशिष्ट शक्तिवाले पुरुष की क्रिया की अपेक्षा से यदि आत्मा को क्रियारहित कहें, तव तो कोई क्षति नहीं किन्तु सर्वसामान्य की अपेक्षा आत्मा को त्रियारहित कहें, तो यह बात असंगत है, क्योंकि सर्वसामान्य की अपेक्षा से तो आत्मा क्रियावान ही है।
सांख्यदर्शन में तो एकान्तरूप से आत्मा को अमूर्त, अकर्ता या निष्क्रिय माना है, उससे जागतिक व्यवस्था की भयंकर क्षति तो होती ही है, साथ ही उसका यह सिद्धान्त युक्तियों की कसौटी पर भी यथार्थ नहीं टिकता। किन्तु मिथ्याग्रहवश वह अपने ही मिथ्यासिद्धान्त का पल्ला पकड़कर बैठ जाता है, सत्य सिद्धान्त को सुननासमझना भी नहीं चाहता और एकान्तरूप से प्रतिपादन करता है, यही मिथ्यात्व का लक्षण है । इसी मिथ्यात्व के कारण नाना प्रकार के आरंभों में वे लोग बेखटके लगे रहते हैं और अपनी आत्मा को पंचविशतितत्त्व का ज्ञाता होने के झूठा आश्वासन देकर आत्म-बंचना करते रहते हैं । इसलिये वे यहाँ भी पापकर्मोदयवश अज्ञान एवं मिथ्यात्व के अन्धकार में डूबे रहते हैं और परलोक में भी ऐसे प्राणियों को यथार्थ बोध नहीं मिलता, इसलिये इससे भी बढ़कर गाढ़ अन्धकार में निमग्न होते हैं। शास्त्रकार का इस मत के स्वरूप प्रतिपादन एवं खण्डन करने के पीछे यही आशय है ।
अब पंचमहाभूत और छठा आत्मा इन षट्पदार्थ वादियों के मत का स्वरूप आगामी गाथा में बताते हैं --
मूल पाठ संति पंच महब्भूया, इहमेगेसिमाहिया । आयछट्टो पुणो आहु, आया लोए य सासए ॥१५।।
संस्कृत छाया सन्ति पञ्च महाभूतानि, इहैकेषामाख्यातानि । आत्मषष्ठानि पुनराहुरात्मा, लोकश्च शाश्वतः ॥१५॥
अन्वयार्थ (इह) इस जगत में (महन्भूया) महाभूत (पंच) पाँच (संति) हैं और (आयछट्ठो) आत्मा छठा है । (एगेसि) यह किन्हीं वादियों ने (आहिया) प्ररूपण किया-कहा {पुणो) फिर (आहु) उन्होंने कहा कि (आया) आत्मा (लोए य) और लोक (सासए) शाश्वत हैं-नित्य हैं ।
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