________________
१०८
सूत्रकृतांग सूत्र
खेती की फसल काट कर भोगने वाला किसान । यदि सांख्य पुरुष (आत्मा) को कर्ता नहीं मानते तो उनका पुरुष वस्तु ही नहीं बन सकेगा। सांख्य द्वारा मान्य पुरुष (आत्मा) वस्तु सत् नहीं है, क्योंकि वह कोई कर्म नहीं करता, जैसे कि आकाश
का पुष्प।
सांख्य आत्मा को भोक्ता मानते हैं, यह भी घटित नहीं होता, क्योंकि भोगक्रिया भी आखिर एक क्रिया है और सांख्य आत्मा को निष्क्रिय मानते हैं । भोक्ता का अर्थ होता है--भोगक्रिया को करने वाला । अगर सांख्यमान्य पुरुष (आत्मा) भोगक्रिया करके भोक्ता बनता है तब तो अन्य क्रियाओं ने क्या अपराध किया है कि पुरुष उन्हें नहीं करता? जिस प्रकार आत्मा भोगक्रिया करता है उसी प्रकार अन्य क्रियाएँ करके उसे सच्चा कर्ता बनना चाहिए । यदि वह निष्क्रिय पुरुष भोगक्रिया नहीं करता, तब उसे भोक्ता कैसे कहा जा सकता है ? इस अनुमान से भी आत्मा का अभोक्तृत्व सिद्ध होता है, संसारी आत्मा भोक्ता नहीं हो सकता, क्योंकि यह भोगक्रिया नहीं करता, जैसे कि मुक्त आत्मा । अकर्ता को भोक्ता मानने में तो 'करे कोई और भोगे कोई' वाली बात हुई। ऐसा मानने से तो 'कृतनाश' और 'अकृताभ्यागम' नामक भीषण दोष आयेंगे । देखिये----प्रकृति ने सब कुछ कार्य किया, पर फल उसे नहीं मिला, वह भोक्त्री न बन सकी, यह स्पष्टतः कृतनाश है और आत्मा ने कुछ भी कार्य नहीं किया, पर फल उसे मिल रहा है, यह अकृताभ्यागम (अकृत की प्राप्ति) है । अत: 'करे कोई और भोगे कोई' इस दूषण से बचने के लिये भोगने वाले आत्मा को ही कर्ता मानना चाहिए । प्रकृति तो अचेतन है, उसे की और भोक्त्री मानना उचित नहीं । यदि वही की-भोक्त्री मानी जाएगी तो पुरुष सर्वथा निरर्थक हो जाएगा।
___यदि कहें कि दर्पण में प्रतिबिम्बित मूति बाहर रहकर भी दर्पण में दिखाई देती है, इसी तरह आत्मा में न होता हुआ भोग भी आत्मा में प्रतीत होता है । यह कथन भी युक्तिविरुद्ध है । प्रतिबिम्ब का उदय भी तो एक प्रकार की क्रिया है, जो विकाररहित नित्य आत्मा में कैसे हो सकती है।
__ कदाचित सांख्यमतवादी यह कहें कि हम तो आत्मा में भोगक्रिया और प्रतिबिम्बित होने की क्रिया मात्र से उसे निष्क्रिय नहीं कहते । आत्मा को हम तभी निष्क्रिय कहते हैं जब सभी क्रियाओं से रहित हो जाए। यह कथन भी युक्तिसंगत नहीं है । जैसे-फलों का अभाव वृक्ष के अभाव का साधक नहीं है। क्योंकि ऐसा होता नहीं कि जब वृक्ष फलवान हो, तभी वृक्ष कहलाए और जब उसके फल न लगे हों, तब वृक्ष न कहलाए। इसी तरह सुप्त आदि अवस्थाओं में यद्यपि आत्मा कथंचित् निष्क्रिय होता है, तथापि इतने मात्र से आत्मा को निष्क्रिय नहीं कहा जा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org