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________________ समय : प्रथम अध्ययन--प्र १०७ तथा देव एवं मनुष्य पर्याय में गति-आगति तथा जातिस्मरण आदि भी संभव नहीं है। तात्पर्य यह है कि यदि कोई कर्ता नहीं है तो कर्ता द्वारा किया जाने वाला कर्म भी नहीं हो सकता और जब आत्मा का किया हुआ कर्म ही नहीं है तो बिना कर्म किये, वह फल कैसे भोग सकेगा ? यदि आत्मा को इस प्रकार अकर्ता माना जाएगा तो 'मैं जानता हूँ' इत्यादि रूप से ज्ञानक्रिया भी नहीं हो सकेगी? कर्म किये बिना ही आत्मा सुख-दुख का उपभोग भी कैसे कर सकेगा ? यदि कर्म किये बिना ही आत्मा द्वारा उसके फल (सुख-दुख) का उपभोग किया जाय तो 'अकृतागम' दोष आएगा और स्वयं किये हुए कर्म का फल न भोगने से 'कृतनाश' दोष आएगा। ऐसी स्थिति में एक प्राणी के द्वारा किये हुए पापकर्म से सभी प्राणी दुखी हो जायेंगे और एक प्राणी के द्वारा किये हुए पुण्यकर्म से सब सुखी हो जायेंगे । मगर ऐसा कहीं देखा नहीं जाता। प्रत्यक्षविरुद्ध होने से ऐसा मानना इष्ट भी नहीं है। ऐसा तो होना भी असंभव है कि देवदत्त कर्म करे और यज्ञदत्त उसका फल भोगे । क्योंकि कर्म और फल में कार्यकारणभाव सम्बन्ध है। वह समानाधिकारणता के साथ है। अर्थात जो आत्मा कर्म का अधिक रणरूप होता है, वही आत्मा फल का अधिकरणरूप होता है। आत्मा यदि सर्वव्यापक एवं एकान्त कूटस्थ नित्य है तो उसकी देव, नरक, मनुष्य, तिर्यंच और मोक्षरूप पाँच प्रकार की गति भी नहीं हो सकती। ऐसी दशा में सांख्यवादी संन्यासी जो काषायवस्त्र-धारण, शिरोमुंडन, दण्डधारण, भिक्षान्नभोजन और पंचरात्र (ग्रन्थ विशेष) के आदेशानुसार यम, नियम आदि का अनुष्ठान करते हैं, यह सब व्यर्थ होगा। तथा 'पच्चीस तत्त्वों को जानने वाला पुरुष चाहे जिस किसी आश्रम में रहे और वह जटी हो, मुण्डी हो, अथवा शिखाधारी हो मुक्ति को प्राप्त करता है, यह कथन भी निरर्थक हो जायगा। तात्पर्य यह है कि यदि आत्मा ही नहीं है तो ये विधि-निषेध या मोक्ष के प्रतिपादक शास्त्रवचन निरर्थक हो जाते हैं क्योंकि वे समाधान करने में असमर्थ हैं । आकाशवत् तथा सर्वव्यापी होने के कारण देवता, मनुष्य आदि गतियों में आत्मा का आना-जाना भी नहीं हो सकेगा तथा नित्य होने के कारण विस्मृति न होने से उस आत्मा में जातिस्मरण (पूर्वजन्मों का स्मरण) आदि क्रिया भी नहीं हो सकेगी। सांख्यमत में यह माना गया है कि प्रकृति कर्म करती है, आत्मा नहीं करता। आत्मा तो आराम करने यानी भोगने वाला है। यह मान्यता भी प्रमाणशून्य है। आत्मा वस्तुतः कर्मों का कर्ता है, क्योंकि वह उन कर्मों के फलों को भोगता है। जो अपने कर्मों के फल को भोगता है, वह कर्ता भी होता है। जैसे अपनी लगाई हुई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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