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________________ १०६ सूत्रकृतांग सूत्र नित्य — जैसा का तैसा, अपरिवर्तनशील, सदा एकरूप में रहने वाला मानने पर जो बालक है, बालक ही रहेगा, जो मूर्ख है, वह मूर्ख ही रहेगा, क्योंकि कूटस्थनित्य में तो न कोई पहले का स्वभाव नष्ट होता है और न उसमें किसी नये स्वभाव की उत्पत्ति होती है, वह तो सदा एक-सा ही रहता है । मूर्ख है तो मूर्ख और विद्वान है तो विद्वान ही रहता है । अत: जन्म - मृत्यु न मानने पर या परिवर्तनशीलता न मानने पर पुण्य के फलस्वरूप उपभोग साधन, देव, मनुष्य आदि शरीर की प्राप्ति तथा कोई सुखी, कोई दुखी, कोई बद्ध, कोई मुक्त इस प्रकार की व्यवस्था भी न हो सकेगी । मूर्ख को विद्वान और अज्ञानी को ज्ञानी बनने की भी गु ंजाइश नहीं रहेगी । ऐसी दशा में तीनों प्रकार के दुखों का विनाश और मोक्ष प्राप्ति आदि बिना किया के अकेले ज्ञान से कैसे संभव होगी ? तथा ज्ञान प्राप्ति के लिए कूटस्थनित्य निष्क्रिय आत्मा कैसे पुरुषार्थ कर सकेगा ? यदि कहें कि हमारे मत से हमें इष्ट है, हम प्रकारान्तर से इन सब कार्यों की संगति प्रकृति द्वारा बिठा लेते हैं, परन्तु इस बात को कोई भोला-भाला या मूर्ख ही मान सकता है, जो थोड़ा सा भी विचारशील एवं हिताहित विवेकी होगा, वह सरल सत्य सहज स्वभाव से बुद्धि में आने वाले सिद्धान्त को छोड़कर टेढ़ी मेढ़ी कल्पना के जाल को नहीं मान सकेगा । इस प्रकार अकारकवादी सांख्य दृष्ट (प्रत्यक्ष और अनुभव से सिद्ध ) एवं इष्ट ( सर्व आस्तिकों के लिए अभीष्ट ) में बाधक अज्ञानान्धकार से पूर्वाग्रह एवं मिथ्याग्रह के कारण निकल नहीं पाते, उसी में ग्रस्त रहते हैं । उस अँधेरे से निकलकर (यानी शरीर छोड़ने पर ) वे मिथ्यात्वान्ध अविवेकी महारम्भासक्त पुरुष उससे भी निकृष्ट अन्तम स्थान (गति) में जा पहुँचते हैं । जहाँ पूर्वकृत घोर पापकर्मवश नाना यातना - स्थान पाते हैं । सांख्यमत की मिथ्यात्वता नियुक्तिकार अकारकवादी सांख्यमत के मिथ्या सिद्धान्त का खण्डन एक गाथा के द्वारा करते हैं--- को वेएई अकयं ? कयनासो, पंचहा गई नत्थि । देवमणुस सगयागइ जाईसरणाइयाणं च ॥ अर्थात् – (यदि आत्मा कर्म का कर्ता नहीं है, उसका किया हुआ कोई भी कर्म नहीं होगा) बिना किये कर्म को कौन भोगता है ? इस प्रकार मानने से कृतकर्म के विनाश का दोष आता है, पाँच प्रकार की गति संभव नहीं हो सकती, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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