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________________ संमय : प्रथम अध्ययन--प्रथम उद्देशक १०५ इस प्रकार तज्जीव-तच्छरीरवादियों की दृष्टि से इस गाथा का अर्थ और व्याख्या की जा चुकी है। अब शास्त्रकार अकारकवादी सांख्यमत का निराकरण और उनकी मिथ्या मान्यता का परिणाम बताने हेतु पुनः इसी गाथा को दोहराते हैं, इसलिए हम यहाँ मूलगाथा न देकर सिर्फ उसका संक्षिप्त अर्थ और तदनुसार व्याख्या दे देते हैं मूलार्थ जो सांख्यमतवादी आत्मा को नित्य, अमूर्त एवं सर्वव्यापी होने से अकर्ता (निष्क्रिय) मानते हैं, उनके मत से यह प्रत्यक्ष दृश्यमान जन्म, जरा, मृत्यु, सुख-दुखरूप तारतम्य से युक्त नरक-तिर्यन्च-मनुष्य-देवरूप चतुर्गतिक लोक कैसे घटित होगा? इस प्रकार वे बुद्धिमंद विवेकमूढ़ लोग उक्त मिथ्यात्वअंधकारवश नाना प्रकार के आरंभों में रत रहते हैं और यहाँ से मर कर फिर मिथ्यात्व-अन्धकार को प्राप्त करते हैं। अथवा एक नरक से दूसरे नरक के घोर अन्धकार में भटकते रहते हैं। व्याख्या अकारकवादी सांख्यमत का निराकरण एवं फल "लोए तेसि"..--जो सांख्यादि मतवादी आत्मा को (१३ वीं गाथा के अनुसार) एकान्त, अमूर्त, कूटस्थनित्य और सर्वव्यापी होने के कारण निष्क्रिय (क्रियारहित-अकर्ता) मानते हैं ? उनके मतानुसार प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला जन्म, जरा, मरण, हर्ष, शोक, रुदन, सुख, दुख आदि रूप तथा नरक तिर्यंन्च-मनुष्यदेवगतिरूप यह लोक (संसार नामक प्रपंच) कैसे हो सकता है ? तात्पर्य यह है कि आत्मा यदि कूटस्थनित्य माना जाय तो उसका एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाना, पुण्य-पाप के फलस्वरूप एक गति और योनि से च्युत (मृत) होकर दूसरी गति और योनि में उत्पन्न होना, तथा एक ही शरीर में बालक, युवक, वृद्ध आदि पर्यायों को धारण करना कैसे सम्भव होगा? अगर आत्मा भी आकाश की तरह एकान्त, सर्वव्यापक, नित्य और अमूर्त है तो उसकी भी गति-आगति हो नहीं सकती। ऐसी दशा में जन्म-मरण आदि की व्यवस्था का अभाव हो जायगा । आत्मा को कूटस्थ १. अमूर्तश्चेतनो भोगी नित्यः सर्वगतोऽक्रियः । अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्म आत्मा कापिलदर्शने ॥ २. अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावः नित्यः । (जो विनष्ट न हो, उत्पन्न न हो, स्थिर हो, सदा एक स्वभाव वाला हो, वह कूटस्थनित्य कहलाता है।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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