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________________ १०४ सूत्रकृतांग सूत्र जनित मिथ्यात्व विष का सेवन करे तो क्या वह अपना प्रभाव नहीं दिखाएगा? अवश्य दिखायेगा। इसे ही शास्त्रकार कहते हैं---तमाओ ते तमं जंति । तम का अर्थ अन्धकार है । मिथ्यात्व एवं अज्ञान एक प्रकार का अन्धकार है। वे मिथ्यात्व अज्ञान आदि अन्धकार में तो पड़े ही हैं, इस घोर अन्धकार में उन्हें पता भी नहीं लगता कि हम क्या कर रहे हैं ? हमें क्या करना है ? इसलिए उक्त घोर मिथ्यात्व अन्धकार के कारण इस लोक में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि अशुभ कर्मबन्ध का संचय करते हैं और यहाँ से मरने के बाद परलोक में भी उन्हें सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन का बोध मिलता नहीं, इसलिए वहाँ भी पुन: इसी प्रकार की मिथ्या मान्यताओं के चक्कर में आकर अथवा तिर्यन्च या नरक गति में घोर यातनाएँ पाकर वे ज्ञानावरणीय आदि के घोरतम अन्धकार में पड़ते हैं । अथवा जो अन्धकार के समान है, उसे 'तम' कहते हैं तथा दुखों के कारण सत्-असत् विवेक-बुद्धि का विनाशक यातना का स्थान भी 'तम' कहलाता है। अतः इस पंक्ति का अर्थ भी यह होता है कि इहलोक में वे मूर्ख युक्तिसिद्ध आत्मा को अपने मिथ्या आग्रह के कारण न मानकर तथा पुण्य-पाप का अभाव मानकर परलोक की परवाह न करते हुए विचारशील पुरुषों द्वारा निन्दित प्राणिहिंमारूप आरम्भ में आसक्त रहते हैं । इस कारण वे मूढ़ यहाँ मिथ्यात्व, अविरति आदि के कारण घोर ज्ञानावरणीय कर्म आदि बड़े से बड़े तम (अन्धकार) का संचय करते हैं। इस प्रकार के तम से वे यातना के धाम नरकरूपी तम में जाते हैं । या इस प्रकार के एक नरकरूप तम से वे उत्तरोत्तर घोर और बड़े नरकरूप तम में जाते हैं । ऐसे व्यक्तियों को उत्तम लोक की प्राप्ति तो किसी भी प्रकार हो नहीं सकती। उन्हें बारम्बार अज्ञान तिमिर में पड़ना पड़ता है। अथवा उस नरकस्थानरूप तम से निकल कर वे उससे भी बड़े दूसरे नरकस्थान में जाते हैं। सातवीं नरकभूमि में वे क्रमशः रौरव, महारौरव, काल, महाकाल और अप्रतिष्ठान नामक नरकावास में जाते हैं। यह इस गाथा का भावार्थ है । वे सत्-असत् के विवेक से विकल मूढजन सुख की आशा से ऐसा करते हैं, लेकिन सुख मिलना तो दूर रहा घोरातिघोर कर्मबन्ध के कारण एक नरकस्थान को छोड़कर अन्य जन्मों में उससे भी अधिकाधिक दुखप्रद नरकस्थान को प्राप्त करते हैं । नरक के घोरतम तमिस्रा के चक्र से दीर्घकाल तक वे बाहर ही नहीं निकल पाते । वेद में भी उनके लिए यही बात कही है।' १. अविद्यामन्तरे वर्तमानाः, स्वयं धीराः पण्डितं मन्यमानाः। दन्द्रम्यमाना परियन्ति मूढाः, अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः ॥ -श्रुति जो मूढजन अविद्या (अज्ञान) में रत हैं, अपने आपको वे धीर पण्डित मानते हैं, वे अन्धे के द्वारा ले जाए जाने वाले अंधों के समान ठोकरें खाते हैं और विनाश को प्राप्त होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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