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________________ समय : प्रथम अध्ययन-प्रथम उद्देशक वास्तव में लोक है। इसमें एक भव से दूसरे भव में जाता जीव प्रतीत होता है।' 'कओ सिया' इन दो पदों में 'कओ' शब्द आक्षेपात्मक है। इसका तात्पर्य यह है कि यह जो लोक में एक सुखी, एक दुखी, कोई धनी, कोई निर्धन, कोई सम्पन्न, कोई विपन्न, कोई ज्ञानी, कोई अज्ञानी, आदि विचित्रताएँ (विलक्षणताएँ) दृष्टिगोचर होती हैं, ये किस तरह से घटित होंगी ? शरीरादि से भिन्न आत्मा को पुण्य-पापफल का भोक्ता मानते तो जगत की विचित्रता सिद्ध होती, उसके बिना विचित्रता की सिद्धि नहीं हो सकती । परन्तु वे आत्मा को परलोकगामी और परलोकगमन के साधन-- कारण पुण्य-पाप आदि को स्वीकार ही नहीं करते तो कर्मफलानुभव का हेतु चतुर्गतिकरूप संसार (लोक) और उसकी विचित्रता कैसे सिद्ध करेंगे ? किसी भी प्रकार से घटित एवं सिद्ध नहीं हो सकती । इस मान्यता का फल तमाओ ते तमं जति- इस गाथा की नीचे की पंक्ति में शास्त्रकार ने तज्जीवतच्छरीरवादियों के उक्त मिथ्यामत को मान कर चलने वालों के जीवन की क्या दशा होती है ? यह बताया है। उनकी बुद्धि पर मिथ्यात्व और अज्ञान का गाढ़ पर्दा पड़ जाता है, इसलिए वे बुद्धिमन्दता के कारण सत्य सिद्धान्त के सम्बन्ध में सोच नहीं सकते और यदि कोई उन्हें सच्ची बात समझाने का प्रयास करे तो वे उसे अपने पूर्वाग्रहवश ग्रहण नहीं कर सकते, फलतः वे आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, नरक, पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष आदि न मानकर नास्तिक बनकर स्वच्छन्दतापूर्वक हिंसा, असत्य आदि विविध पापारम्भों में रत रहते हैं। वे मन्दबुद्धि लोग कभी यह भी नहीं सोचते हैं कि इन पापकर्मों का फल उन्हें कितना भयंकर मिलेगा ? वे प्रायः यह सोच लेते हैं कि जब हम आत्मा, पुण्य-पाप एवं उनके कारण होने वाले शुभाशुभ कर्मबन्ध के फलस्वरूप स्वर्ग-नरक (परलोक), मोक्ष आदि नहीं मानते, तो हमें कैसे कर्मबन्ध हो जायगा और क्यों नरक, तिर्यन्च आदि गति मिलेगी? परन्तु किसी अनुभवसिद्ध सत्य बात को न मानने से या उसके परिणाम से अनभिज्ञ रहने मात्र से कोई व्यक्ति उसके फल से छूट नहीं सकता। कोई व्यक्ति विष को मारक न माने या न समझं अथवा विष के प्रभाव से अनभिज्ञ होकर यदि विष खा ले तो क्या विष अपना प्रभाव नहीं दिखायेगा ? अवश्य दिखायेगा। इसी प्रकार तज्जीव-तच्छरीरवादी नास्तिक यदि अनुभवसिद्ध सत्य सिद्धान्त को न माने, न समझे या ठुकरा दे अथवा अपने माने हुए तथाकथित मिथ्या सिद्धान्तों को पूर्वाग्रहवश पकड़ कर चले, अथवा सत्य सिद्धान्त से अनभिज्ञ होकर उस मिथ्याश्रद्धान १. 'लोक्यते अनुभूयते कर्म फलान्यस्मिन्निति लोक: चतुर्गतिक: संसार: ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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