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सूत्रकृतांग सूत्र संस्कृत छाया कुर्वश्च कारयंश्चैव, सर्वां कुर्वन् न विद्यते । एवमकारक आत्मा, एवं ते तु प्रगल्भिताः ।।१३।।
अन्वयार्थ (अप्पा) आत्मा (कुव्व च) स्वयं क्रिया करने वाला और (कारयं) दूसरे से क्रिया कराने वाला (चेव) तथैव (सव्वं) सब क्रियाओं को (कुव्वं) करने वाला (न विज्जई) नहीं है । (एवं) इस प्रकार (अकारओ) आत्मा अकारक है, किसी भी क्रिया का कर्ता नहीं है । (ते उ) वे अकारकवादी (एवं) इस प्रकार (पब्भिया) कहने की धृष्टता करते हैं।
भावार्थ आत्मा स्वयं कोई क्रिया नहीं करता, और न ही दूसरे को प्रेरित करके क्रिया करवाता है, तथा समस्त क्रियाएँ आत्मा नहीं करता है। इस प्रकार आत्मा अकारक अर्थात् किसी भी क्रिया का कर्ता नहीं है, यों अकारकवादी सांख्य आदि मत वाले अपने सिद्धान्त की डींग हाँकते हैं।
व्याख्या
आत्मा का अकर्तृत्व : एक विश्लेषण
इस गाथा में सांख्यदर्शन के द्वारा प्ररूपित आत्मा के अकर्तृत्ववाद का स्वरूप बताया गया है । सांख्यदर्शन में आत्मा को पुरुष कहते हैं। व्याकरण शास्त्र में कर्ता का लक्षण दिया है-'स्वतन्त्रः कर्ता' कर्ता स्वतन्त्र होता है। इसका मतलब है कि कर्ता वह है, जो क्रिया के प्रति स्वतन्त्र हो, क्रिया करता हो; जबकि सांख्यदर्शन मान्य आत्मा अमूर्त, नित्य एवं सर्वव्यापी होता है, इसलिए भी वह कर्ता नहीं हो सकता । जो अमूर्त, नित्य एवं सर्वव्यापी होता है, वह क्रियाशून्य होता है । वह (पुरुष) प्रकृति आदि २४ तत्त्वों से भिन्न है, अकर्ता है, निर्गुण (त्रिगुणरहित) है, भोक्ता है तथा नित्य चैतन्यशाली है ।' आत्मा अकर्ता इसलिए भी है कि वह विषयसुख आदि को तथा इनके कारण पुण्य आदि कर्मों को नहीं करता । आत्मा में एक तिनके को भी मोड़ने की शक्ति नहीं है।
किसी अन्य कारण से प्रयुक्त होकर जो सकल कारकों का प्रयोजक (प्रेरक) होता है, वह भी कर्ता कहलाता है, इस अर्थ में भी सांख्यदर्शनीय आत्मा कर्ता नहीं
१. 'अकर्ता निर्गुणो भोक्ता, आत्मा कापिलदर्शने ।
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