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समय : प्रथम अध्ययन --- प्रथम उद्देशक
है । इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं— 'कुब्वं च कारयं चेव, सव्वं कुब्वं न विज्जई' इस गाथा में कुव्वं पद के द्वारा स्वतन्त्र कर्ता का भी निषेध किया है । चूंकि आत्मा अमूर्त, नित्य और सर्वव्यापी है, इसलिए वह कर्ता नहीं हो सकता और इसी कारण वह दूसरों से क्रिया कराने वाला भी नहीं हो सकता । इस गाथा में प्रयुक्त पहला च शब्द आत्मा के भूतकालीन एवं भविष्यकालीन कर्तृत्व का निषेधक है ।
आशय यह है कि आत्मा स्वयं किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता और दूसरे को भी किसी क्रिया में प्रवृत्त नहीं करता । कुव्वं च कारयं चेव – यहाँ शास्त्रकार ने आत्मा के स्वयं कर्तृत्व तथा पर-प्रेरणा द्वारा कर्तृत्व का निषेध कर दिया है, इन दोनों पंक्तियों से समस्त क्रियाओं के कर्तृत्व- - कारयितृत्व का निषेध कर दिया गया है, फिर पुनः 'सव्वं कुव्वं न विज्जई' कहने की क्यों आवश्यकता पड़ी ।
इसके समाधान में यों कहा जा सकता है कि सांख्यमत में आत्मा स्वयं किसी क्रिया में प्रवृत्त नहीं होता, लेकिन मुद्रा - प्रतिबिम्वोदय - न्याय एवं जपा- स्फटिक - न्याय से वह स्थितिक्रिया और भोगक्रिया करता है । तात्पर्य यह है कि चैतन्य और कर्तृत्व धर्म भिन्न-भिन्न अधिकरण में रहते हैं । चैतन्य आत्मा का धर्म है और कर्तृत्व प्रकृति का । शीशे में मुख का प्रतिबिम्ब पड़ता है उसी प्रकार प्रकृतिरूपी दर्पण में पुरुष (आत्मा) का प्रतिबिम्ब पड़ता है । अतएव जैसे शीशे के हिलने पर उसमें पड़ा हुआ प्रतिबिम्ब भी हिलता है इसी प्रकार प्रकृति में रहे हुए विकार पुरुष में भी प्रतिभासित होते हैं । इस दृष्टि से जीव अकर्ता होकर भी कर्ता हो जाता है, अचेतन भी लिंग चेतना वाला हो जाता है । प्रकृति में स्थितिक्रिया होने पर पुरुष में भी स्थितिक्रिया उपलब्ध होती है । अचेतन प्रकृति भी चेतनावती सी हो जाती है और आत्मा अकर्ता होने पर भी शरीर के सम्बन्ध के कारण कर्ता-सदृश हो जाता है । ' वह स्वतन्त्र कर्ता नहीं है, यह सांख्यमत का आशय है ।
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जैसे किसी दर्पण में प्रतिबिम्बित मूर्ति अपनी स्थिति के लिए स्वयं प्रयत्न नहीं करती, किन्तु प्रयत्न के बिना ही वह चित्र में स्थित रहती है । इसी तरह आत्मा अपनी स्थिति के लिए स्वयं प्रयत्न किये बिना ही स्थित रहता है। इस 'मुद्राप्रतिबिम्बितोदयन्याय' की दृष्टि से आत्मा स्थितिक्रिया का स्वयं कर्ता न होने के कारण अकर्ता-सा है । इसी प्रकार जैसे स्फटिक मणि के पास लाल रंग का जपापुष्प
१. तस्मात्तत्संयोगादचेतनं चेतनावदिव लिंगम् । गुणकर्तृत्वेऽपि तथा कर्तेव भवत्युदासीनः ॥
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-सां० का०
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