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________________ समय : प्रथम अध्ययन-प्रथम उद्देशक जब तज्जीव-त'छरीरवादियों के समक्ष यह शंका प्रस्तुत की जाती है कि यदि पाँच भूतों से भिन्न आत्मा नाम का कोई पदार्थ नहीं है और उसके किये हुए पुण्य-पाप नहीं है तो यह विचित्र जगत क्यों दृष्टिगोचर होता है ? इस विश्व में कोई सुन्दर है, कोई कुरूप है, कोई धनवान है, कोई निर्धन है, कोई मतिमन्द है तो कोई प्रखर प्रज्ञ, कोई स्वस्थ, कोई रोगी, कोई सुखी तो कोई दुखी प्रतीत होता है, ऐसी विचित्रता क्यों दिखाई देती है ? इसे भ्रान्ति तो कह नहीं सकते और न इसे मिथ्या प्रतीति ही कह सकते हैं। इसका समाधान करते हुए वे कहते हैं- यह सब स्वभाव से होता है । जसे किसी पत्थर के टुकड़े की देवमूर्ति बनाई जाती है और मूर्ति कुंकुम, चन्दन, अगर आदि विलेपन से सुशोभित है और धूप आदि की सौरभ से भी सुवासित है । जबकि दूसरे पत्थर के टुकड़े पर लोग पैर धोते हैं, चटनी बाटते हैं आदि। ऐसा होने में उन दोनों पत्थर के टुकड़ों का क्रमशः कोई पुण्य-पाप नहीं है, जिसके उदय से उनकी वैसी स्थिति हो । अत: यह सिद्ध हुआ कि जगत में परिदृश्यमान विचित्रता स्वभाव से होती है । काँटों में तीक्ष्णता, मयुर में विविध रंगों की छटा, और मुर्गे की चोटी का बढ़िया रंग, ये सब भी तो स्वभाव से ही होते हैं, इन्हें कौन करता है ? वैसे ही जगत में दृश्यमान विविधता स्वाभाविक है, किसी के द्वारा की हुई नहीं है । परन्तु जैनदर्शन तथा अन्य कई भारतीय दर्शन इस समाधान से सन्तुष्ट नहीं हैं । पुण्य-पाप या इसके फलस्वरूप प्राप्त होने वाले स्वर्ग-नरक की व्यवस्था को न मानने पर जगत की सारी व्यवस्था बिगड़ जाती है तथा फिर कोई भी शुभ कार्य करने के लिए प्रोत्साहित नहीं होगा, प्रायः हर व्यक्ति पाप कर्म या बुरे कार्य बेखटके करने के लिए प्रेरित होगा। क्योंकि शरीर खत्म होते ही आत्मा और उसके द्वारा कृत शुभाशुभ कर्म यहीं खत्म हो जायगे। फिर कौन मोक्ष के लिए साधना करेगा ? संसार में पशुता या अराजकता का ही ताण्डव नृत्य होगा। आगे शास्त्रकार स्वयं इस सम्बन्ध में प्रकाश डालेंगे, इसलिए इस विषय को यहीं विराम देते हैं । परन्तु इतना निश्चित है कि यह तज्जीव-तच्छीरवादी सिद्धान्त मिथ्यात्व का पोषक होने से अशुभ कर्मबन्धन का कारण है। अब अकारकवादी सांख्यदर्शन का मन्तव्य प्रस्तुत करते हए शास्त्रकार कहते हैं मूल पाठ कुव्वं च कारयं चेव, सव्वं कुव्वं न विज्जई । एवं अकारओ. अप्पा, एवं ते उ पगब्भिया ॥१३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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