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समय : प्रथम अध्ययन-प्रथम उद्देशक
नत्थि सत्तोववाइया-तज्जीव-तच्छरीरवादियों के सिद्धान्त का एक अंग यह है कि आत्मा कहीं परलोक में नहीं जाती, इसलिए प्राणी एक भव से. दूसरे भव में नहीं जाता । क्योंकि शरीर के उत्पन्न-विनष्ट होने के साथ ही जब आत्मा उत्पन्नविनष्ट हो जाता है तब फिर कौन परलोक में या अन्य जन्मान्तर में आत्मा साथ जायगा ? जो वस्तु नष्ट हो चुकी है, उसका आना-जाना सम्भव ही नहीं है । आनाजाना तो उसी में पाया जाता है जो स्थितिशील हो। जैसा कि उनके आगम (श्रुति) में कहा है.--'विज्ञानधन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानविनश्यति न प्रेत्य संज्ञाऽस्तीति ।' अर्थात, 'विज्ञान का पिण्ड यह आत्मा, इन भूतों से उठकर (उत्पन्न होकर) इनके नाश के पश्चात नष्ट हो जाता है। अत: मरण के पश्चात ज्ञान (चैतन्य) नहीं रहता।' शास्त्रीय भाषा में एक भव से दूसरे भव में जाना 'उपपात' कहलाता है और जो एक भव से दूसरे भव में जाता है, उसे 'औपपातिक' कहते हैं । सत्ता--सत्त्व अर्थात प्राणी, जो आत्मा को धारण करने वाले हैं. उन्हें कहते हैं।
_ शास्त्रकार का तात्पर्य यह है कि आत्मा भी जब शरीर के नष्ट होने के साथ ही नष्ट हो जाता है; तब आत्मा ही नहीं, आत्मा को धारण करने वाले प्राणी भी एक जन्म से दूसरे जन्म में नहीं जाते।
इस मत के द्वारा मान्य आत्मा का अनेकत्व तो जैनदर्शन को अभीष्ट है, लेकिन शरीर के उत्पन्न-विनष्ट होने के साथ ही आत्मा की उत्पत्ति-विनाश मानना अभीष्ट नहीं है । जैनदर्शन जीवों के बहुत्व को स्वीकारते हुए भी आत्मा को शरीर से भिन्न एवं परलोकगामी मानता है । इतना जैनदर्शन और तज्जीव-तच्छरीरवाद में अन्तर है।
जब गुणी आत्मा यहीं नष्ट हो जाता है, परलोक नहीं जाता है तो उसके गुण धर्म और अधर्म का यहीं नाश हो जाता है, परलोक में जाने का तो सवाल ही नहीं हैं, क्योंकि कारण के अभाव में उक्त कारण के आश्रित कार्य का भी अभाव होता है । घड़े के ठीकरों का अभाव (नष्ट) हो जाने पर घट भी किसी प्रकार ठहर नहीं सकता, तथैव जब (धर्मी) आत्मारूप कारण का ही अस्तित्व नहीं है, तो
सब क्रियाएँ करते हैं। परन्तु तज्जीव-तच्छरीरवादी के मत में ऐसा नहीं है । वे शरीररूप में परिणत पंचभूतों से चैतन्यशक्ति की उत्पत्ति मानते हैं । यही पंचभूतवादियों से तज्जीव-तच्छरीरवादियों का अन्तर है ।
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