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सूत्रकृतांग सूत्र
उसके आश्रित धर्म-अधर्म ( पुण्य-पाप) का भी अभाव हो जाता है । इसे ही बतलाने के लिए शास्त्रकार अगली गाथा में तज्जीव- तच्छरीरवादी की मिथ्या मान्यता का अनिष्ट परिणाम बताते हैं ।
मूल पाठ
नत्थि पुण्णे व पावे वा, नत्थि लोए इतो वरे । सरोरस्स विणासेणं, विणासो होइ देहिणो || १२ ||
संस्कृत छाया
नास्ति पुण्यं वा पापं वा, नास्ति लोक इतः परः । शरीरस्य विनाशेन, विनाशो भवति देहिनः ॥ १२ ॥
अन्वयार्थ
( पुण्णे व ) पुण्य ( वा पावे) अथवा पाप ( नत्थि ) नहीं हैं । (इतो ) इस लोक से (वरे) परे, आगे, दूसरा ( लोए) लोक (नत्थि ) नहीं है । ( सरीरस्स) शरीर के ( विणा सेणं) विनाश से (देहिणो ) देही - आत्मा का ( विणासो) विनाश ( होइ ) हो जाता है ।
भावार्थ
पुण्य अथवा पाप नहीं है । इस लोक से भिन्न दूसरा लोक भी नहीं है । शरीर के विनाश के साथ आत्मा का भी विनाश हो जाता है ।
व्याख्या
पुण्य-पाप का अभाव : एक दृष्टि
इस गाथा में तज्जीव- तच्छरीरवादियों के मत का अनुसरण करने से क्या अनिष्टापत्ति होती है, यह बताने के लिए शास्त्रकार ने कहा - 'नत्थि पुण्ण व पावे वा' पंचभूतात्मक शरीर के साथ ही आत्मा के विनष्ट हो जाने से जीव द्वारा किये हुए शुभ-अशुभ कर्मों के फलस्वरूप जो पुण्य-पाप होते हैं, वे नहीं है । सरीरस्स विणासेण - पुण्य और पाप आदि क्रमशः शुभ-अशुभ कर्मों के फल होते हैं । दान, ' परोसेवा आदि शुभ क्रियाओं से पुण्य बन्ध होता है और हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार आदि अशुभ क्रियाओं से पाप-बन्ध होता है । इन दोनों का अस्तित्व तज्जीव तच्छरीरवादी के मत में नहीं है । क्यों नहीं है ? इसका कारण उन्हीं की दृष्टि से शास्त्रकार बताते हैं- 'सरीरस्स विणासेणं' जो चेष्टा तथा इन्द्रियार्थ का
पकार,
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