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भावार्थ
अज्ञानी हैं और जो ज्ञानी हैं, उन सबकी आत्माएँ पृथक-पृथक् हैं, एक नहीं है । किन्तु वे आत्माएँ मरने (शरीर छूटने के पश्चात् नहीं रहती, और न परलोक में जाती हैं । यांनी प्राणी औपपातिक (एक भव से दूसरे भव में जाने वाले) नहीं होते ।
सूत्रकृतांग सूत्र
व्याख्या
आत्मा अनेक, किन्तु शरीर के साथ समाप्त
इस गाथा में शास्त्रकार यह बताना चाहते हैं कि कई लोग आत्माएँ तो अनेक मानते हैं, क्योंकि संसार में यह प्रत्यक्ष दिखाई देता है कि कई लोग बिलकुल अज्ञानी हैं, उन्हें अपने स्वरूप तथा जीवन का भान ही नहीं होता, इसके विपरीत कई लोग एकदम ऊँचे दर्जे के विद्वान हैं, शास्त्रज्ञ हैं, विवेकवान हैं । इस महान अन्तर को देखते हुए यह तो नहीं कहा जा सकता कि सारे संसार में आत्मा एक ही है । बल्कि संसार के सब प्राणियों की आत्माएँ अलग-अलग हैं । इसी बात को शास्त्रकार अभिव्यक्त करते हैं- 'पत्त अं कसिणे आया, जे बाला जे य पंडिआ ।' तज्जीव- तच्छरीरवाद का स्वरूप
प्रश्न होता है, जैनदर्शन, न्यायदर्शन आदि दर्शनों का तो यही सिद्धान्त है— 'प्रत्यगात्मा भिद्यते' प्रत्येक प्राणी की आत्मा भिन्न है । वह अपने आप में सम्पूर्ण है, पूर्ण शक्तिमान है, तब फिर शास्त्रकार इस मत का खण्डन क्यों करते हैं ? इसका समाधान शास्त्रकार स्वयं करते हैं - 'संति पिच्चा न ते ।' अर्थात् आत्मा पृथक-पृथक मानने पर भी उनका मत है कि जब तक शरीर विद्यमान रहता है, तब तक ही आत्मा भी स्थित रहती है, किन्तु शरीर के नष्ट होते ही आत्मा भी नष्ट हो जाती है । क्योंकि शरीररूप में परिणत पंचमहाभूतों से चैतन्य प्रकट होता है, अतः उनके अलग-अलग होने पर वह चैतन्य भी नष्ट हो जाता है । शरीर के साथ ही चैतन्य - विनाश का कारण यह है कि शरीर से बाहर निकल कर कहीं अन्यत्र जाता हुआ चैतन्य प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होता । यही तज्जीव तच्छरीरवादियों के मत का एक पक्ष है । '
१. स एव जीवस्तदेव शरीरमिति वदितुं शीलमस्येति तज्जीव- तच्छरीरवादी ।
अर्थात् वही जीव है, और वही शरीर है, यह जो बतलाता है, उसे तज्जीवतच्छरीरवादी कहते हैं । यद्यपि पूर्वोक्त पंचमहाभूतवादी भी शरीर को ही आत्मा कहते हैं, तथापि उनके मत में पंचभूत ही शरीर रूप में परिणत होकर
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