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समय : प्रथम अध्ययन-प्रथम उद्देशक
उसका फल तो मुझे मिलेगा नहीं, क्योंकि अगर मुझं फल मिलेगा तो सारे संसार को फल मिलेगा। इसी आशय से शास्त्रकार कहते हैं-'मन्दा आरंभपिस्सिया, एगे किच्चा सयं पावं ।' तात्पर्य यह है—ऐसे कई आत्माद्वैतवादी या उनके चक्कर में पड़े हुए व्यक्ति, ये युक्तिहीन मिथ्या आत्माद्वैतवाद को पकड़कर विवेकभ्रष्ट होकर बेखटके हिंसा आदि आरंभ करते हैं, उसी में रात-दिन रचे-पचे रहते हैं, उधर लोगों में भले बनने या धर्मात्मा का स्वांग रचने के लिये वे रटीरटाई ब्रह्मज्ञान की आत्मा की बातें करते हैं । यह ब्रह्मज्ञान का तोता-रटन्त उन्हें पापकर्मबन्धन से बचाने में समर्थ नहीं होता। इस प्रकार वे अपनी आत्म-वंचना करके पापकर्म में लिप्त होकर उस बन्धन के फलस्वरूप इहलोक में भी दुख पाते हैं और परलोक में भी नरक, तिर्यन्च आदि दुर्गतियों में जाकर नाना प्रकार के दुखों से पीड़ित होते हैं। इस एक जन्म में एकान्त आत्माद्वैत के मिथ्यात्व सेवन के कारण वे अगले जन्मों में भी सहसा सम्यग्ज्ञान या सम्यक्त्व प्राप्त नहीं कर पाते । नरक-तिर्यन्च गति में उन बेचारों को सम्यग्बोध कहाँ मिल सकता है ? और अपने स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने की रुचि भी कहाँ होती है ? मोह, अज्ञान और मिथ्यात्व का गाढ़ काला पर्दा उनकी बुद्धि पर पड़ जाता है और पड़ा रहता है। यही शास्त्रकार का आशय है।
अब अगली गाथा में तज्जीव-तच्छरी रवादियों के मत का स्वरूप बताकर उसका खण्डन करते हुए कहते हैं ।
मूल पाठ पत्त अं कसिणे आया, जे बाला जे य पंडिआ । संति पिच्चा न ते संति, नथि सत्तोववाइया ॥११॥
संस्कृत छाया प्रत्येकं कृत्स्ना आत्मनः, ये बाला ये च पण्डिताः । सन्ति प्रेत्य न ते सन्ति, न संति सत्त्वा औपपातिकाः ॥११॥
अन्वयार्थ (जे बाला) जो अज्ञानी हैं, (जे य पंडिया) और जो पण्डित हैं, (कसिणे) उन सबकी (आया) आत्माए (पत्त अं) पृथक पृथक (संति) हैं । (ते) किन्तु वे (पिच्चा) मरने के पश्चात (न संति) नहीं रहते हैं (सत्ता) वे प्राणी (उववाइया) परलोकगामी (नत्थि) नहीं होते ।
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