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________________ ८८ सूत्रकृतांग सूत्र चाहिए. लेकिन ऐसा कदापि होता नहीं और न ही यह सुसंगत है। इस प्रकार विश्व में सिर्फ एक आत्मा को स्वीकार करने से बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था नहीं हो सकती । जो जीव मुक्त है, वह एकात्मवाद की दृष्टि से बन्धन में पड़ जाएगा और जो पुरुष बन्धन में हैं, वे एकात्मवाद के कारण मुक्त हो जाएंगे। फिर तो एक के अशुभकर्म करने पर शुभकर्म करने वाले सभी पुण्यात्माओं को भी तीव्र दुख होना चाहिए, क्योंकि सबका आत्मा एक है । परन्तु यह नहीं देखा जाता । यह प्रत्यक्ष प्रमाण से विरुद्ध है। यह अनुभवसिद्ध तथ्य है कि जो व्यक्ति अशुभ (पाप) कर्म करता है, वही उसका फल भोगता है, वही दुखी होता है, उसके बदले दूसरे सब व्यक्ति दुखी नहीं हो सकते । किन्तु सबका आत्मा एक मानने पर जो पापी नहीं, उसे भी पापी के बराबर कष्ट भोगना पड़ेगा। क्योंकि सब एक ब्रह्मरूप होने से आत्मा में कोई भिन्नता तो रही नहीं है। एक ही आत्मा मानने पर देवदत्त को जो ज्ञान हुआ, वह यज्ञदत्त को भी होना चाहिए। देवदत्त के ज्ञान को यज्ञदत्त को जानना चाहिए लेकिन यह भी होता नहीं। एक के जन्म लेने, मरने या किसी कार्य में प्रवृत्त होने पर दूसरे सभी जीवों को जन्म लेना, मर जाना चाहिए या किसी कार्य में प्रवृत्त हो जाना चाहिए पर ऐसा कदापि होता नहीं । इसलिये सब प्राणियों का एक आत्मा है, यह सिद्धान्त यथार्थ नहीं है । तथा आत्मा को सर्वब्रह्माण्डव्यापक मानना भी ठीक नहीं है क्योंकि शरीररूप में परिणत पाँचभूतों में ही चैतन्य पाया जाता है, घटपटादि पदार्थों में नहीं । अन्य आत्मा सर्वव्यापक नहीं है । इसीलिए कहा है नैकात्मवादे सुख-दुःखमोक्ष व्यवस्थ्या कोऽपि सुखादिमान् स्यात् । एकात्मवाद में सुख, दुख, मोक्ष आदि व्यवस्थाएँ गड़बड़ा जाएँगी । इसलिये इस मत को मानकर कोई सुखी नहीं हो सकता। अतएव जड़-चेतनात्मक जगत् में सिर्फ एक ही आत्मा है, यह कहना युक्ति-संगत नहीं है। एकात्मवाद का ब्रह्मज्ञान पाकर कई व्यक्ति इतने निःशंक हो जाते हैं, कि उनके एकात्मवाद के साथ अहिंसा, सत्यादि का आचरण या किसी अपने से उत्कृष्ट परमात्मा, सर्वज्ञ, वीतराग, त्यागी, निःस्पृह श्रमण आदि की उपासना करना तो बिलकुल ही बताया नहीं जाता, क्योंकि वेदान्तदर्शन में तो इसी पर जोर दिया गया है कि सारे संसार में एकमात्र ब्रह्म-तत्त्व को मान लो, समझ लो, ब्रह्मज्ञान कर लो, ब्रह्म में लीन हो जाओ, यही मुक्ति है, यही सर्वस्वज्ञान है। इसी से मुक्ति हो जाएगी। इसलिये एकात्मवाद को मानकर फिर वह बेखटके हिंसा, असत्य आदि पापों में प्रवृत्त हो जाता है, क्योंकि उसे यह तो भय है नहीं, कि मैं जो शुभाशुभ कर्म या पाप-पुण्य की प्रवृत्ति करूंगा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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