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________________ ८७ समय : प्रथम अध्ययन----प्रथम उद्देशक भावार्थ कई एकात्माद्वैतवादी सारे ब्रह्माण्ड में एक ही आत्मा है, इस (पूर्वोक्त) प्रकार से मिथ्या प्ररूपण करते हैं। वे कई मंदबुद्धि अज्ञ, प्राणातिपात आदि आरम्भ में आसक्त स्वयं पाप करके तीव्र दुख प्राप्त करते हैं। व्याख्या आत्मावतवाद का निराकरण इस गाथा में पूर्वगाथा में प्रतिपादित आत्माद्वैतवाद को अयथार्थ बताकर 'उसका प्ररूपण करने वाले व्यक्तियों को शास्त्रकार ने मंदबुद्धि, अज्ञानी. विवेकहीन और मिथ्या प्ररूपण करने वाले बताया है। प्रश्न होता है कि आत्माद्वैतवाद का प्ररूपण करने वाले मंदबुद्धि क्यों हैं ? उन्होंने बड़ी-बड़ी युक्तियाँ और दृष्टान्त देकर सारे जड़-चेतनात्मक संसार को एक ब्रह्मरूप सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। अतः वे जड़बुद्धि या विवेकहीन कैसे हो हो सकते हैं ? इसके उत्तर में शास्त्रकार स्वयं कहते हैं - "ज पंति 'आरंभ-णिस्सिया" नियच्छइ ।” आशय यह है कि युक्ति एवं विचार से रहित होने के कारण वे युक्तिरहित एकात्मवाद को पकड़ कर जहाँ-तहाँ अपनी डींग हाँकते हैं। वे उस प्रकार का ब्रह्मज्ञान बधारते हैं, जिसका कोई ओर-छोर नहीं है, यही उनकी मूर्खता या मूढ़ता है। एगे-ऐसा युक्ति रहित आत्माहतवाद कई लोग बघारते हैं, सभी नहीं। क्योंकि वेदान्त दर्शन में भी आगे चलकर शंकराचार्य, आचार्य रामानुज, मध्वाचार्य, निम्बार्काचार्य आदि आचार्यों ने इसमें कुछ संशोधन किया है। ब्रह्म को सगुण मानकर भक्तियोग का भी समावेश किया है, तथा ब्रह्म सत्य होते हुए भी प्रेम या करुणामय है । ब्रह्म अन्तर्यामी है, वह सब आत्माओं के भीतर का हाल जानता है । ब्रह्म में मिल जाने पर बिल्कुल मिथ्या नहीं है, इस प्रकार विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत, शुद्धाद्वैत आदि कई शाखाएँ वेतान्त दर्शन में से फूटी हैं। वे लोग पूर्वोक्त मान्यता से कूछ भिन्न विचार रखते हैं । इसीलिए 'एगे' कहा गया है। एकात्मवाद युक्तिरहित इसलिए है कि एक ही आत्मा को मानने पर एक के द्वारा किये गये शुभ या अशुभ कर्मों का फल दूसरे को भोगना चाहिए। एक को कर्मबन्धन होने पर संसार के सभी जीवों के कर्मबन्धन होना चाहिए, संसार से किसी एक व्यक्ति के कर्मबन्धन से मुक्त होने पर संसार के सभी जीवों को मुक्त हो जाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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