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सूत्रकृतांग सूत्र प्रकार आत्मा भी विविध आकृति एवं रूप वाले जड़-चेतनमय पदार्थों में व्याप्त है और एक ही है। जैसे कि श्रुति (वेद) में कहा है---
एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः ।
एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ।। एक ही आत्मा (ब्रह्म) सभी भूतों में स्थित है। वह एक होकर भी जल में प्रतिबिम्बित चन्द्रमा के समान नानारूप में दिखाई देता है।
आशय यह है कि जैसे एक ही चन्द्रमा जल से भरे हुए विभिन्न पात्रों में अनेक दिखाई देता है, इसी प्रकार एक ही आत्मा उपाधिभेद से अनेक प्रकार का दिखाई देता है।
जैसे एक ही वायु सारे लोक में व्याप्त (प्रविष्ट) है, मगर उपाधिभेद से अलग-अलग रूप वाला हो गया है, वैसे ही सर्व भूतों में रहा हुआ एक ही आत्मा उपाधिभेद से भिन्न-भिन्न रूप वाला हो जाता है।
यही शास्त्रकार का आशय है। यही आत्माद्वैतवादियों की मान्यता है । अगली गाथा में आत्माहतवाद का खण्डन करते हुए शास्त्रकार इस मत के मानने से होने वाली हानि का दिग्दर्शन कराते हैं
मूल पाठ एवमेगे त्ति जप्पंति, मंदा आरम्भणिस्सिया । एगे किच्चा सयं पावं, तिव्वं दुक्खं नियच्छइ ॥१०॥
संस्कृत छाया एवमेक इति जल्पन्ति, मन्दा आरंभनि:श्रिताः । एके कृत्वा स्वयं पापं, तीव्र दुःखं नियच्छन्ति ।।१०।।
अन्वयार्थ
(एगे) कई आत्माद्वैतवादी (त्ति एवं) एक ही आत्मा है, इस (पूर्वोक्त) प्रकार से (जप्पंति) असत्य प्रलाप करते हैं, मिथ्या प्रतिपादन करते हैं। (मंदा) वे मन्द यानी जड़बुद्धि हैं, विवेकविकल हैं, (आरंभणिस्सिया) प्राणातिपात आदि आरम्भ में आसक्त ऐसे (एगे) कई व्यक्ति (सयं) स्वयं (पावं) पाप (किच्चा) करके (तिव्वं) तीव्र (दुक्खं) दुःख (नियच्छइ) प्राप्त करते हैं।
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