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समय : प्रथम अध्ययन-प्र
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को देखकर पानी समझे या पानी में परछाई देखकर समझे कि चन्द्रमा, तारे, बादल आदि पानी के भीतर हैं और पानी के भीतर घूम रहे हैं, ठीक इसी तरह अविद्या के प्रभाव से मनुष्य साधारण वस्तुओं को ब्रह्म न मानकर मकान, पेड़, शरीर या जानवर इत्यादि मानते हैं । ज्यों ही मनुष्य को ज्ञान होगा, विद्या प्राप्त होगी अथवा यों कहिए कि ज्यों ही उसका शुद्ध ब्रह्मरूप प्रकट होगां, त्यों ही उसे सब कुछ ब्रह्मरूप ही मालूम होगा । इस अवस्था को पहुँचते ही मनुष्य के समस्त दुख-दर्द की माया मिट जायेगी, सुख ही सुख हो जायेगा । वह ब्रह्म में मिल जाएगा, या लय हो जाएगा अर्थात अपने असली स्वरूप को पा जाएगा। यह ब्रह्मलयावस्था है। इस प्रकार की ब्रह्मविद्या जिसने प्राप्त कर ली, उसने मोक्ष प्राप्त कर लिया समझो। जिसने ब्रह्म को जान लिया, उसने सब कुछ जान लिया । ब्रह्म को जानने के बाद कुछ भी जानना या पाना शेष नहीं रहता।
___ जो ब्रह्म को जानता है, वह ब्रह्म है। ब्रह्म को छोड़कर कोई चीज नहीं। उसे फिर वेद को पढ़ने की भी आवश्यकता नहीं है। जैसे-~-पानी से लबालब भरे प्रदेश में क्षुद्र जलाशय का कोई महत्व नहीं रहता, वैसे ही ब्रह्मविद्या प्राप्त किए हुए व्यक्ति के लिये वेद का कोई महत्व नहीं है । जब शिष्य ने गुरु से पूछा- "गुरुदेव ! कहाँ आप और कहाँ मैं ? आपकी परमात्मा में और मेरी आत्मा में तो बहुत अन्तर है। क्या सभी ब्रह्म एक से हैं ?" ऋषि ने कहा-"तत्त्वमसि" तुम ही वह ब्रह्म (आत्मा) हो । वास्तव में दोनों एक हैं। तात्यर्य यह है कि ब्रह्म सत्य है, और दृश्यमान नाना पदार्थात्मक जगत मिथ्या है। जगत में नानारूप में दिखाई देने वाली वस्तुएँ ब्रह्म (आत्मा) का ही रूप है । इस बात को आत्मावतवादियों की ओर से स्पष्ट करने के लिए शास्त्रकार दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं— "जहा य पुढवीथूभे नाणाहि दोसइ" जैसे पृथ्वी का समूह रूप जो अवयवी है अथवा पृथ्वीरूप जो स्तूप-समुदाय रूप पिण्ड है, वह एक है, फिर भी जल, नदी, समुद्र, पर्वत, नगर, घट, पट आदि नानारूप होने से विचित्र सा दिखाई देता है, अथवा ऊँचा, नीचा, कोमल, कठोर, लाल, पीला, भूरा, आदि के भेद से नाना प्रकार का दिखाई देता है, किन्तु इन सबमें पृथ्वीतत्त्व व्याप्त रहता है। उसके स्वरूप में कोई अन्तर नहीं आता। इन सब भेदों के बावजूद भी पृथ्वीतत्त्व में कोई भेद नहीं होता। इसी प्रकार हे लोको ! चेतन-अचंतन रूप समस्त लोक विज्ञ (विद्वान या ज्ञानमय) एक आत्मा ही है । यद्यपि एक ही ज्ञानपिण्ड आत्मा पृथ्वी, जल आदि भूतों के आकार में होने से नाना प्रकार का दिखाई देता है, परन्तु इस भेद के कारण उस आत्मा के स्वरूप में कोई भेद नहीं होता। आशय यह है कि जैसे-घड़े आदि सब वस्तुओं में पृथ्वी एक ही है, उसी
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