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सूत्रकृतांग सूत्र
व्याख्या
आत्मावतवाद का स्वरूप और विश्लेषण
प्रस्तुत गाथा में एकात्मवाद, जिसे कि उत्तरमीमांसक (वेदान्ती)१ मानते हैं, का स्वरूप बताया गया है। उत्तरमीमांसावादी वेदान्ती अद्व तब्रह्म को मानते हैं। उनका प्रधान सिद्धान्त है-'सर्वं खल्विदं ब्रह्म, नेह नानास्ति किंचन' अर्थात इस जगत में सब कुछ ब्रह्मरूप ही है, उसके सिवाय नाना दिखाई देने वाली चीज कुछ नहीं है । अर्थात् चेतन, अचेतन (पृथ्वी आदि पंचभूत तथा जड़ पदार्थ) जितने भी पदार्थ हैं, वे सब एक ब्रह्म (आत्म) रूप हैं ।२ सभी प्राणियों के शरीर में जो भूतकाल में रहा है, भविष्य में रहेगा, वह एक ही ब्रह्म (आत्मा) भासमान होता है। इसी तरह सभी जड़ पदार्थ भी ब्रह्मरूप हैं । इसी बात को शास्त्रकार ने व्यक्त किया है.---'एवं भो कसिणे लोए विन्न' अर्थात सारा जड़-चेतनात्मक लोक आत्मस्वरूप-चैतन्यमय है। ब्रह्म (आत्मा) एक ही है, वह अद्वितीय है।
प्रश्न होता है कि जगत में ब्रह्म के सिवाय और कुछ नहीं है, तब फिर ये बहुत सी चीजें हमें अपनी खुली आँखों से प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं, ये क्या हैं ? आप तो कहते हैं एक ही पदार्थ है, वह है ब्रह्म; फिर ये जो नाना चीजें दिखाई पड़ती हैं, ये क्या हैं ? इसका समाधान वे यों करते हैं कि अविद्या के कारण मनुष्य को भ्रान्ति हो जाती है, इसी से उसे बहुत सी चीजें मालूम होती हैं। अविद्या व्यक्तिगत अज्ञान है, वह मानव स्वभाव में ऐसी मिली हुई चीज है कि बड़ी कठिनता से दूर होती है। अविद्या कोई अलग चीज नहीं है, वही माया है, मिथ्या है । जो कुछ हम देखते हैं या और किसी तरह का अनुभव करते हैं, वह भी ब्रह्म का अंश है, पर वह हमें अविद्या के कारण ठीक-ठीक अनुभव नहीं होता । जैसे कोई दूर से रेगिस्तान
१. उत्तरमीमांसा या वेदान्त के सिद्धान्त उपनिषदों में, कुछ पुराणों में और साधा
रण साहित्य में मिलते हैं । वेद का ज्ञानकाण्ड उपनिषदों में संगृहीत किया गया है, इसीलिए इसे वेदान्त कहा गया है, इन सिद्धान्तों का क्रम से वर्णन सर्वप्रथम बादरायण ने (ई० पू० ३-४ शताब्दी में) वेदान्त (ब्रह्म) सूत्र में
किया, जिस पर शंकराचार्य का बृहद्भाष्य है। २ सर्वमेतदिदं ब्रह्म' (छान्दोग्य० ३११४११), 'ब्रह्म खल्विदं वाद सर्वम्' (मैन्युप०
३. पुरुष एवेदं सर्व, यच्च भूतं, यच्च भाव्यम् । ४. एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म।
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