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समय : प्रथम अध्ययन–प्रथम उद्देशक
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है, मेरा पुराना कर्म है, इत्यादि व्यवहारों से आत्मा शरीर से पृथक बतलाया जाता है। इस युक्ति से भी आत्मा प्रमाण से सिद्ध है।
तुष्यतुदर्जन न्यायेन चार्वाक द्वारा अपने मतलब के लिये प्रयुक्त अनुमान प्रमाण में भी जैन नैयायिक दोष बताते हैं । चार्वाक ने यह कहा कि 'चैतन्य भूतों से भिन्न नहीं है, क्योंकि वह पंचभूतों का कार्य है, जैसे घट आदि', यह भी असंगत है क्योंकि यहाँ 'भूतकायत्व' हेतु 'स्वरूपासिद्धि' है । जहाँ हेतु पक्ष में नहीं रहता, वहाँ हेतुत्व का अभाव होने से पक्ष में स्वरूपासिद्धि होती है। जैसे शब्द गुण हैं, क्योंकि वह चाक्षुष है। यहाँ चाक्षुषत्व हेतु शब्द रूप पक्ष में न रहने के कारण स्वरूपासिद्ध है, वैसे ही यहाँ चैतन्य महाभूतों का कार्य न होने से चैतन्य रूप पक्ष में भूत कार्यत्व हेतु नहीं रहता। अतः वह भी स्वरूपासिद्ध है, चैतन्य महाभूतों का कार्य क्यों नहीं है, यह हम पहले ही "महाभूतों का कार्य चैतन्य नहीं है, क्योंकि भूतों का गुण चैतन्य नहीं है।” इस प्रकार के अनुमान द्वारा सिद्ध कर आए हैं। भूतों का कार्य चैतन्य मानने पर 'मैं पाँच ही विषयों को जानता हूँ' इस प्रकार का संकलनात्मक ज्ञान नहीं हो सकता, यह दोषापत्ति भी हम पहले प्रस्तुत कर आए हैं। इसलिए भूतों से भिन्न ज्ञान का आधार आत्मा अवश्य है, यह सिद्ध हुआ।
चार्वाक की ओर से पुनः शंका प्रस्तुत की जाती है—ज्ञान से भिन्न और ज्ञान का आधारभूत अलग आत्मा मानने की क्या आवश्यकता है ? क्योंकि ज्ञान से ही सम्मेलनात्मक (संकलनात्मक) ज्ञान आदि सभी सिद्ध हो सकते हैं। अतः शरीर की भेद ग्रन्थि की तरह व्यर्थ ही एक आत्मा को अलग से मानने की क्या जरूरत है ? ज्ञान से ही मभी व्यवहार हो सकेंगे। वह इस प्रकार--ज्ञान ही चैतन्य रूप है, उसका शरीर रूप में परिणत अचेतन भूतों के साथ सम्बन्ध होने पर सुख-दुख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न आदि क्रिया उत्पन्न होती हैं तथा उसी को सम्मेलनात्मक ज्ञान होता है और वही ज्ञान दूसरे भव में भी जाता है। इस प्रकार सब विषयों की व्यवस्था हो जाने पर फिर आत्मा की कल्पना की क्या आवश्यकता है ?
इसका समाधान यह है- ज्ञान का आधारभूत एवं ज्ञान से कथंचित भिन्न आत्मा माने बिना अनेक विषयों का संकलनात्मक ज्ञान नहीं हो सकेगा। जैसेप्रत्येक इन्द्रिय अपने-अपने विषय को ग्रहण कर सकती है। एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रिय के विषय को ग्रहण नहीं कर सकती। चक्षु रूप को ही जानती है, रसादि को नहीं । ऐसी दशा में सभी विषयों को जानने वाले इन्द्रियों से भिन्न आत्मा का अस्तित्व न होगा तो ज्ञायक का अभाव होने से 'मैंने पाँचों ही विषय जाने' इस प्रकार का संकलनात्मक ज्ञान नहीं हो सकेगा।
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