________________
सूत्रकृतांग सूत्र
अर्थापत्ति प्रमाण को सातवाँ प्रमाण माना जाता है । अर्थापत्ति प्रमाण का लक्षण यह है कि जिस पदार्थ का अन्य पदार्थ के बिना न होना छह ही प्रमाणों से निश्चित हो, वह पदार्थ अपनी सिद्धि के लिये जो अन्य अदृष्ट की कल्पना करता है, उसे अर्थापत्ति कहते हैं ।' अर्थापत्ति को समझने के लिए उदाहरण लीजिये-पीनोऽयं देवदत्तः दिवा न भुंक्ते (यह मोटा ताजा देवदत्त दिन में नहीं खाता है) । बिना खाए कोई मोटा हो नहीं सकता, यह सभी प्रमाणों से निश्चित है। परन्तु यहाँ देवदत्त का दिन में खाने का निषेध किया है, साथ ही उसे मोटा भी कहा है। मगर खाए बगैर वह मोटा नहीं हो सकता है । इसलिए जाना जाता है कि वह रात में खाता है । यहाँ देवदत्त के लिये रात में भोजन करने की बात नहीं कही गई है, फिर भी अर्थापत्ति प्रमाण से जानी जाती है। इसी तरह दीवार आदि पर लेप्य कर्म बगैरह में पृथ्वी, जल आदि पंच महाभूत समुदाय होते हुए भी सुख, दुख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न आदि क्रियाएँ नहीं होती। इससे निश्चित होता है कि सुख, दुख, इच्छा आदि क्रियाओं का समवायी कारण पंचभूतों से भिन्न कोई दूसरा पदार्थ है। और वह पदार्थ आत्मा है । इस प्रकार प्रत्यक्ष और अनुमानादि मूलक अर्थापत्ति प्रमाण से भी आत्मा की सिद्धि समझ लेनी चाहिए।
आगम प्रमाण से भी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है—अस्थि मे आया उववाइए२ (परलोक में जाने वाला मेरा आत्मा है) 'स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो' (श्वेतकेतो ! वह आत्मा तुम्हीं हो) इत्यादि आगम प्रमाण आत्मा के विषय में मिलते हैं।
आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करने के लिये दूसरे प्रमाणों को ढूंढने की क्या आवश्यकता है ? सब प्रमाणों में श्रेष्ठ और प्रधान प्रत्यक्ष प्रमाण से ही आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है । आत्मा के ज्ञान आदि गुण मानस-प्रत्यक्ष द्वारा प्रत्यक्ष किये जाते हैं । वे ज्ञानादि गुण अपने गुणी आत्मा से अभिन्न हैं। गुण तथा गुणी एक होने से मानस-प्रत्यक्ष से आत्मा भी प्रत्यक्ष ही है। जैसे रूप आदि गुणों के प्रत्यक्ष होने से पट आदि का प्रत्यक्ष होता है । आशय यह है कि 'मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, इत्यादि अनुभूत वाक्यों में 'मैं' इस ज्ञान से ग्रहण किया जाने वाला आत्मा मानस प्रत्यक्ष है । क्योंकि 'मैं' यह ज्ञान, आत्मा का ही ज्ञानरूप है। तथा मेरा यह शरीर
१. प्रमाण षट्कविज्ञातो यत्रार्थो नान्यथा भवन् ।
अदृष्ट कल्पयेदन्यं सार्थापत्तिरुदाहृता । २. आचारांग सूत्र
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org