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सूत्रकृतांग सूत्र
मात्र से उनका अभाव नहीं माना जाता। सजातीय पदार्थों के साथ सम्मिश्रण हो जाने से--कभी-कभी समान जातीय वस्तुओं के साथ सजातीय वस्तु के मिल जाने से भी ग्राह्य वस्तु का साक्षात्कार नहीं हो पाता । जैसे जलाशय में अपने लोटे का जल डाल देने पर उस जल का पृथक ग्रहण नहीं होता। कबूतरों के झुण्ड में मिला हुआ किसी के घर का पालतू कबूतर अलग दृष्टिगोचर नहीं होता । किन्तु न दिखने मात्र से न तो उक्त जल का अभाव हो सकता है और न ही उस कबूतर फा। अनुभव के कारण -किसी चीज का प्रादुर्भाव न होने तक वह चीज प्रत्यक्ष नहीं होती। जैसे- दूध में दही या बीज में अंकुर अभी दिखता नहीं है, किन्तु न दिखने मात्र से दही या अंकुर का अभाव नहीं माना जाता।
इसी प्रकार स्वर्ग, नरक, मोक्ष, अदृष्ट आदि में प्रवृत्त न होने वाला प्रत्यक्ष स्वर्गादि के अभाव का बोधक नहीं हो सकता। जो वस्तु किसी अन्य प्रमाण के द्वारा निश्चित न हो, उससे अगर प्रत्यक्ष विवृत्त ' हो तो उस वस्तु का अभाव सिद्ध हो सकता है। किन्तु प्रत्यक्ष न होने मात्र से किसी वस्तु का अभाव सिद्ध हो जाए, ऐसा प्रमाण-विशेषज्ञ पुरुष नहीं मानते ।
इसके अतिरिक्त जिन्होंने स्वर्ग आदि को नहीं जाना, उन्हें उनके अभाव का भी ज्ञान नहीं हो सकता। क्योंकि अभाव के ज्ञान में प्रतियोगी का ज्ञान कारण होता है। जिस पुरुष ने घट को नहीं जाना, वह घटाभाव को भी नहीं जान पाता। इसी प्रकार स्वर्ग आदि प्रतियोगियों का ज्ञान चार्वाक को न होने से वह स्वर्गादि के अभाव को किसी भी प्रकार से नहीं जान सकता । अतः स्वर्गादि का अभाव सिद्ध करना चार्वाक के बस की बात नहीं रही । क्योंकि स्वर्गादि के अभाव के ज्ञान के लिए पहले उसे स्वर्गादि का ज्ञान, प्रत्यक्ष के सिवाय किसी अन्य प्रमाग से करना ही होगा । इसी प्रकार दूसरों के अभिप्राय को जानने-समझने और दूसरों को अपना अभिप्राय समझाने के लिये भी प्रत्यक्ष के सिवाय किसी अन्य प्रमाण को स्वीकार करना ही पड़ेगा । अन्यथा चार्वाक ने दूसरों को समझाने के लिये शास्त्रों की रचना क्यों की?
___ इस प्रकार प्रत्यक्ष से भिन्न अनुमान आदि प्रमाणों की सिद्धि हो जाती है । उन प्रमाणों से आत्मा भी पंचमहाभूत से भिन्न सिद्ध हो जाती है ।
आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व है, क्योंकि उसका जो असाधारण गुण चैतन्य है, वह उपलब्ध होता है । इस प्रकार कार्य की उपलब्धि से कारण की अर्थात देह से भिन्न आत्मा की सिद्धि होती है।
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