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गाथा : सोलहवाँ अध्ययन
९६५ दिया है, जो पूजा-सत्कार या वस्त्रादि लाभ की बिलकुल इच्छा नहीं रखता, किन्तु एकमात्र धर्म की इच्छा रखता है, (धम्मविऊ) जो धर्मतत्त्व का वेत्ता है, जो मोक्षमार्ग को प्राप्त है, जो समभाव से चलता है या सिद्धान्त के अनु. सार चलता है, उक्त गुणों से युक्त जो पुरुष जितेन्द्रिय है, मोक्षगमन के योग्य (भव्य) है तथा शरीर पर से आसक्ति का त्याग कर चुका है, उसे निर्ग्रन्थ कहना चाहिए।
श्री सुधर्मास्वामी श्री जम्बूस्वामी आदि शिष्यवर्ग से कहते हैं कि मैंने यह तीर्थंकर देव से सुनकर आप लोगों से जो कहा है, उसे आप सत्य समझें, क्योंकि जगत् की भय से रक्षा करने वाले श्री तीर्थकर सर्वज्ञ आप्तपुरुष अन्यथा उपदेश नहीं करते हैं।
व्याख्या
इसे निर्गन्थ कहना चाहिए निर्ग्रन्थ उसे कहते हैं, जो बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थियों से सर्वथा मुक्त हो । ग्रन्थियाँ जब तक हैं तब तक साधक मोक्ष की दिशा में प्रगति नहीं कर सकता, इसलिए पूर्वसूत्र में उक्त भिक्षु के गुणों से युक्त होते हुए भी जो साधक इस सूत्र में कथित निन्थ के विशिष्ट गुणों से युक्त हो, उसे निर्ग्रन्थ कहा जा सकता है । निर्ग्रन्थ के लिए सर्वसंगों, समस्त सम्बन्धों, समस्त सहायकों एवं समस्त सांसारिक संयोगों या पदार्थों का त्याग करना आवश्यक है, उसके बिना वह निग्रन्थत्व में टिक नहीं सकेगा। इसलिए यहाँ उसके विशिष्ट गुणों में से सर्वप्रथम एगे, एगविऊ कहा है। एकाकी होने पर वह चिन्तित न हो, यही सोचे कि यह आत्मा अपने कर्मवश परलोक में अकेला ही जाता है, और अकेला ही वहाँ से आता है, कोई किसी का सहायक या साथी नहीं होता । न इस लोक में ही कोई किसी के दुःख-सुख को बँटा सकता है और न ही कोई किसी के साथ स्थायी रह सकता क्योंकि शरीर अनित्य है। ये सांसारिक धन, मकान, दुकान, सोना, चाँदी, या अन्य आहार आदि पदार्थ भी स्थायी नहीं है, ये भी किसी को एकान्त सुख या दुःख अथवा सहायता नहीं दे सकते । इस प्रकार का एक या एकवेत्ता का तत्त्वज्ञान होने पर संग, संयोग, सम्बन्ध, सहायक आदि की ग्रन्थि टूट सकती है। जब साधक के दिल-दिमाग में यह बात भलीभाँति अँच जाएगी, वह इस तस्वज्ञान में अच्छी तरह अभ्यस्त हो जायगा कि समस्त संग, संयोग आदि क्षणिक हैं, कोई भी पदार्थ नित्य नहीं है, शिवाय आत्मा के कोई भी साथ जाने वाला नहीं, स्वकृत कर्म स्वयं को ही भोगने पड़ेंगे, तब साधक उन गाँठों को तोड़ने में देर नहीं लगाएगा, जो उसे व्यर्थ ही अज्ञान या वस्तुस्वरूप न समझने के कारण सांसारिक पदार्थों के सहायकत्व या सुख-दुखप्रदातृत्व की आशा में उलझाए हुए थे। इसीलिए निर्ग्रन्थ में एगे, एगविऊ, बुद्ध, आयवायपत्ते, विऊ, धम्मविऊ इत्यादि गुण सार्थकता के लिए होने अत्यन्त आवश्यक हैं । तभा
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