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________________ ६६६ सूत्रकृतांग सूत्र वह छिन सोए (आस्रवद्वारों को बन्द करने वाला), सोयपलिच्छिन्ने (द्रव्यभाव दोनों प्रकार से संसार में आगमन के स्रोत (मार्ग) को काटने वाला) बन सकेगा । आभ्यन्तर ग्रन्थों में हिंसा आदि पाप भी हैं । निर्ग्रन्थ के लिए यह आवश्यक है कि वह सुसमित बने, धर्मवेत्ता बने, इन्द्रियों और मन को विषयों में जाने से रोके, अपने शरीर पर से ममता उतारे । ये गुण आने पर वह ईर्या आदि पाँचों समितियों युक्त होकर हिंसा, असत्य आदि ग्रन्थों से दूर रह सकेगा । धर्मवेत्ता बनकर प्रत्येक प्रवृत्ति धर्म से युक्त कर सकेगा, हिंसा आदि पापरूप ग्रन्थि से बचेगा, साथ ही निर्ग्रन्थ एक पर राग और दूसरे पर द्वेष नहीं करेगा, न किसी से वैर बढ़ाएगा, न किसी से मोह; दोनों ही पर समभाव रखेगा। इसी प्रकार पूजा, सत्कार या वस्त्रादि लाभ की आकांक्षा नहीं करेगा, इन्हें बन्धन और आत्मा को परतन्त्रता में डालने वाले समझेगा । इसलिए निर्ग्रन्थ के लिए पूजा - सत्कारलाभ से निरपेक्ष रहना अनि वार्य है । शरीर सब खुराफातों की जड़ है, इसे खाने पीने, रहने, पहनने ओढ़ने और इसे सुख-सुविधा में रखने के लिए मनुष्य नाना प्रकार के पाप कर्म करता है, उस पर ममत्व करके कर्मबन्धन करता है, सुकुमार बनाकर परीषहों और उपसर्गों का सामना करने से कतराता है, इस प्रकार सामान्य मनुष्य जहाँ शरीर पर ममत्व रखकर हिंसा, झूठ, परिग्रह आदि अनेक पापों की गाँठ बाँध लेता है, वहाँ निर्ग्रन्थ इसी शरीर पर से ममत्व हटाकर इसे संस्कारित करने एवं सजाने-सँवारने में व्यर्थ समय, शक्ति नहीं खोता, वह काया पर से ममत्व का व्युत्सर्ग कर देता है, उसे अनासक्तिपूर्वक आहार पानी देकर उससे संयमपालन या धर्माचरण करता है । मोक्षमार्ग में उसे संलग्न कर देता और मोक्षगमन के योग्य (भव्य ) बन जाता है । इसलिए निर्ग्रन्थ के वोमटुकाए, नियागपडिपन्ने दविए दंते आदि विशिष्ट गुण सार्थक ही हैं । इस दृष्टि से निन्थ के ये विशिष्ट गुण जिसमें हों, उसे निर्ग्रन्थ कहना चाहिए । आप्तपुरुष के इस कथन की सत्यता में संदेह नहीं श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी आदि से कहते हैं कि मैंने जो बातें आप लोगों से कही हैं, वे अपनी ओर से नहीं कहीं, अपितु तीर्थंकरदेव से सुनकर कही हैं, इसलिए ऐसे आप्तपुरुष के द्वारा उक्त वचन की सत्यता में कोई सन्देह नहीं हो सकता । क्योंकि एकान्तहितैषी, सबको भय से बचाने वाले, राग-द्वेष मोहादि से रहित सर्वज्ञ आप्त अन्यथा उपदेश नहीं करते हैं । इति सोलसमं गाहानामज्झयणं समत्तं ॥ इस प्रकार सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध का गाथा नामक सोलहवाँ अध्ययन अमरसुखबोधिनी व्याख्या सहित सम्पूर्ण । Jain Education International || पढमो सुदबंधी समत्तो ॥ ॥ प्रथम श्रुतस्कन्ध सम्पूर्ण ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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