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________________ गाथा : सोलहवां अध्ययन १८५ इतना ही नहीं, उसकी इन्द्रियाँ और मन इतने अभ्यस्त हो जाएँ कि विपरीत मार्ग पर जाएँ ही नहीं । तथा मुक्ति जाने योग्य होने से द्रव्यभूत है, अथवा भव्य अर्थ में द्रव्य में शब्द का प्रयोग होता है। इसके अनुसार उत्तम जाति के सुवर्ण की तरह राग-द्वेष के समय होने वाले अपद्रव्य-यानी बुराइयों से रहित होने के कारण जो शुद्ध द्रव्यभूत है। शरीर को राजाने-संवारने, शृंगारित करने आदि शारीरिक संस्कारों का जिसने त्याग कर दिया हो और जो शरीर से सब प्रकार का ममत्व त्याग चुका हो, वह साधक व्युत्सृष्टकाय कहलाता है। ऐसे विशिष्ट गुणों से सुशोभित साधक को माहन कहना चाहिए, श्रमण कहना चाहिए, भिक्ष कहना चाहिए या उसे निर्ग्रन्थ कहना चाहिए। माहन का अर्थ होता है जो स्वयं स्थावर, जंगम, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त भेद वाले प्राणियों का हनन नहीं करता है, और किसी भी प्राणी का हनन मत करो' इसी प्रकार का उपदेश वह दूसरों को भी देता है । 'समण' शब्द प्राकृत भाषा का है, उसके संस्कृत में तीन रूप होते हैं-- श्रमण, शमन और समन । श्रमण का अर्थ हैं-जो तप-संयम में यथाशक्ति श्रम-पुरुषार्थ करता है। शमन का अर्थ है- कषायों का उपशमन करने वाला । तीसरे समन का अर्थ है ---जो प्राणिमात्र पर समभाव रखता है, अथवा शत्रु -मित्र पर जिसका मन सम है । अथवा प्राणिमात्र पर अनुकम्पा की भावना से युक्त हो, वह भी 'समन' कहलाता है। "भिक्ष' का अर्थ है--जो स्वयं पचन-पाचन आदि क्रिया नहीं करता, न पैसे से भोजनादि मोल लेता है, न खरीद कर लाया हुआ भोजन लेता है, किन्तु निर्दोष, कल्पनीय, एषणीय, निरवद्य, अचित्त, आहारपानी भिक्षा के रूप में ग्रहण करके जीवन निर्वाह करता है, जो निर वद्य भिक्षाशील है, भिक्षाजीवी है । अथवा जो आठ प्रकार के कर्मों का भेदन करता है, वह भिक्षु कहलाता है। अथवा जो इन्द्रियदमन आदि भासुर (दैदीप्यमान) गुणों से युक्त होता है, उसे भी भिक्षु कहना चाहिए। निर्ग्रन्थ उसे कहते हैं----जिसकी बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थियाँ नष्ट हो गई हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान महावीर ने कहा कि पूर्वोक्त १५ अध्ययनों में उक्त अर्थों के अनुसार अनुष्ठान करने वाले दान्त, शान्त, मोक्ष-प्राप्ति योग्य, विदेह (देह ममत्वत्यागी) साधु को माहन कहना चाहिए, श्रमण कहना चाहिए या भिक्षु कहना चाहिए अथवा उसे निर्ग्रन्थ कहना चाहिए। इसे सुनकर श्री जम्बूस्वामी आदि ने श्री सुधर्मास्वामी से सविनय प्रतिप्रश्न किया कि तथारूप साधक को माहन, श्रमण, आदि क्यों और किस अपेक्षा से कहा गया है ? यह आप हमें बताएँ ? क्योंकि आप भदन्त (कल्याणकारी) है अथवा आप भय का अन्त करने वाले हैं, या भव (संसार) का अन्त करने वाले हैं। हे महामुने ! आप त्रिकालज्ञ हैं, भगवान के संघ के एक विशिष्ट प्रतिनिधि हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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