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________________ सूत्रकृतांग सूत्र श्री सुधर्मास्वामी भगवान् के आशय को स्पष्ट करने के लिए और शिष्यों के समाधानार्थ अगले सूत्रों में कहते हैं - ६८६ मूल पाठ इति विरए सव्वपावकम्मेहि पिज्ज - दोस- कलह - अब्भक्खाणपेसन्न - परपरिवाय अरति रति मायामोस मिच्छादंसण सल्ल विरए, सहिए समिए, सया जए णो कुज्झे, णो माणी माहणेत्ति वच्चे ।। सूत्र २॥ - - संस्कृत छाया इति विरतः सर्वपापकर्मभ्यः प्रेम-द्वशेष- कलहाभ्याख्यान- पैशुन्य-परपरीवादारतिरति माया मृषा- मिथ्यादर्शनशल्यविरतः सहितः समितः, सदा यतः न क्रुध्यन्नो मानी मान इति वाच्यः ॥ | सूत्र २ || अन्वयार्थ (इति सव्वपावकस्मेहिं विरए) पूर्वोक्त १५ अध्ययनों में जो उपदेश दिया है, उसके अनुसार आचरण करने वाला जो साधक समस्त पापों से निवृत्त है, (पिज्जदोस- कलह - अभक्खाण- पेसुन्न परपरिवाय अरतिरति मायामोस मिच्छादंसण सल्लविरए) जो किसी पर राग-द्व ेष नहीं करता, जो कलह से दूर रहता है, किसी पर झूठा दोषारोपण नहीं करता, किसी की चुगली नहीं करता, दूसरों की निन्दा नहीं करता, जिसकी संयम में अरुचि और असंयम में रुचि नहीं है, कपटयुक्त झूठ नहीं बोलता ( दम्भ नहीं करता), यानी १८ ही पापस्थानों में विरत होता है, ( समिए सहिए) पाँच समितियों से युक्त है, ज्ञानदर्शनचारित्र से युक्त है, (सया जए) सदा षट्जीव - निकाय की यतना (रक्षा) करने में तत्पर रहता है, अथवा सदा इन्द्रियजयी होता है, (जो कुज्झे णो माणी) किसी पर क्रोध नहीं करता और न मान करता है, इन गुणों से सम्पन्न अनगार 'माहन' कहे जाने योग्य है । भावार्थ Jain Education International पूर्वोक्त १५ अध्ययनों में उपदिष्ट वातों के अनुसार आचरण करने वाला जो साधक सब पापों से निवृत्त है, किसी के प्रति राग-द्वेष नहीं करता, किसी से कलह नहीं करता, किसी के प्रति मिथ्यादोषारोपण नहीं करता, किसी की चुगली नहीं खाता, किसी की निन्दा नहीं करता, जिसकी संयम में अरुचि और असंयम में रुचि नहीं होती, जो मायाचार नहीं करता तथा मिथ्यात्वरूपी शल्य से विरत है, पाँच समितियों से तथा सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय से युक्त है, सदा इन्द्रियजयी है या सदा छहकाय के जीवों पर यतना For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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