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________________ १८४ सूत्रकृतांग सूत्र श्रमण, भिक्ष अथवा निम्रन्थ कहना चाहिए ? (तं नो ब्रूहि महागुणी) हे महामुने ! वह हमें आप बताइए। भावार्थ पन्द्रह अध्ययन कहने के पश्चात् भगवान् महावीर स्वामी ने कहा"पन्द्रह अध्ययनों में कथित अर्थों (बातों) से युक्त जो पुरुष इन्द्रिय और मन को वश में कर चुका है, मुक्तिगमन के योग्य (द्रव्य) है, जिसने शरीर पर से ममत्व का व्युत्सर्ग (त्याग) कर दिया है, उसे माहन, श्रमण, भिक्ष या निर्ग्रन्थ कहना चाहिए।" शिष्य ने पूछा- "भदन्त ! पन्द्रह अध्ययनों में उक्त अर्थों से सम्पन्न जो पुरुष इन्द्रिय और मन को जीत चुका है, मोक्षगमन के योग्य (भव्य) है तथा कायव्यूत्सर्ग कर चुका है, उसे क्यों माहन, श्रमण, भिक्षु अथवा निम्रन्य कहना चाहिए ? हे महामुने ! कृपया यह हमें बताइए।" व्याख्या माहन, श्रमण, भिक्ष और निम्रन्थ : स्वरूप और प्रतिप्रश्न इस सूत्र में यह बताया गया है कि श्री सुधर्मास्वामी ने अपने शिष्यों के सामने जब पन्द्रह अध्ययनों में उक्त साधु-गुणों के सम्बन्ध में श्रमण भगवान महावीर के उद्गार प्रस्तुत किये कि ऐसा व्यक्ति माहन, श्रमण, भिक्ष और निर्ग्रन्थ कहा जा सकता है, तब उसी के सम्बन्ध में जम्बूस्वामी आदि ने प्रतिप्रश्न किया है। यहाँ 'अथ' शब्द प्रथम और अन्तिम मंगल-रूप होने से वह इस श्रुतस्वन्ध के अन्तिम मंगल का सूचक है। अथवा अथ शब्द 'अनन्तर' अर्थ में प्रयुक्त हआ है, जिसका आशय है। पन्द्रह अध्ययनों के पश्चात उनके अर्थों को एकत्रित करने वाला यह सोलहवां अध्ययन प्रारम्भ किया जाता है। अर्थात् इसके पश्चात् उत्पन्न दिव्यज्ञानसम्पन्न भगवान् महावीर ने देवों और मनुष्यों से परिपूर्ण परिषद् में ऐसी (आगे कही जाने वाली) बात कही है । यह कहकर श्री सुधर्मास्वामी यह कहना चाहते हैं कि पिछले १५ अध्ययनों में या इस गाथा अध्ययन में जो कुछ भी उपदेश दिया गया है, वह सब भगवान् का है, मेरा इसमें कुछ नहीं है । मैं तो उनके द्वारा कथित उद्गारों का व्यवस्थित रूप से सम्पादन करने वाला हूँ, इसमें मेरा अपना कुछ नहीं है। भगवान् ने क्या कहा था ? इसे शास्त्रकार उटंकित करते हैं-.-."१५ अध्ययनों में जो विधि-निषेधरूप उपदेश दिया गया है, उसके अनुरूप आचरण करने वाला साधु दान्त, द्रव्य और व्युत्सृष्ट काय है तो निःसन्देह उसे माहन, श्रमण, भिक्ष या निर्ग्रन्थ कहा जा सकता है। दान्त उसे कहते हैं-जो साधक इन्द्रिय और मन का दमन करता है, पापाचरण में या सावध कार्यों में प्रवृत्त होने से रोक लेता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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