SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1028
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा : सोलहवाँ अध्ययन १८३ करके प्रस्तुत अध्ययन में समाविष्ट किया गया है, इस कारण इसे गाथा अध्ययन कहते हैं । अथवा पन्द्रह अध्ययनों में साधुओं के क्षमा आदि जो गुण विधि-निषेधरूप में बताये गये हैं, वे इस सोलहवें अध्ययन में एकत्र करके प्रशंसात्मक रूप में कहे जाते हैं, इसलिए इस अध्ययन को गाथा कहते हैं। भावगाथा वह है, जिसमें क्षायोपशामिक भाव से निष्पन्न गाथा से प्रति साकारोपयोग हो, क्योंकि सम्पूर्ण थ त क्षायोपशमिक भाव में ही माना जाता है। श्रु तरूप शास्त्र में निराकारोपयोग सम्भव नहीं है। शास्त्रकार अब क्रमप्राप्त सूत्र का अस्खलित आदि गुणों के साथ उच्चारण करते हैं ___मूल पाठ अहाह भगवं-एवं से दंते, दविए, वोसठ्ठकाएत्ति वच्चे माहणेत्ति वा १ समणेत्ति वा २, भिक्खूत्ति वा ३, णिग्गंथेत्ति वा ४॥ पडिआह-भते ! कहं नु दंते, दविए, वोसट्ठकाएत्ति वच्चे माहणेत्ति वा, समणेत्ति वा, भिक्खूत्ति वा, णिग्गंथेत्ति वा ? तं नो बूहि महामुणी! ।।सूत्र १॥ संस्कृत छाया _अथाह भगवान · एवं स दान्तो, द्रव्यो, व्युत्सृष्टकाय इति वाच्यः-- माहन इति वा, श्रमण इति वा, भिक्षरिति वा, निर्ग्रन्थ इति वा ।। प्रत्याह--भदन्त ! कथं नु दान्तो, द्रव्यो, व्युत्सृष्टकाय इति वाच्यः माहन इति वा, श्रमण इति वा, भिक्षुरिति वा, निर्ग्रन्थ इति वा ? तन्नो ब्रू हि महामुने ! ।।सूत्र १॥ अन्वयार्थ (अह भगवं आह) पन्द्रह अध्ययन कहने के बाद भगवान् ने कहा कि (एवं से दंते, दविए, दोसकाएत्ति वच्चे माहणेत्ति वा, समणेत्ति वा, भक्खूत्ति वा, णिग्गंथेत्ति वा) पन्द्रह अध्ययनों में उक्त अर्थों (गुणों) से युक्त जो पुरुष इन्द्रिय और मन को वश में कर चुका है, मुक्तिगमन-योग्य है, जिसने शरीर का व्युत्सर्ग कर दिया है, उसे माहन, श्रमण, भिक्षु या निर्ग्रन्थ कहना चाहिए। (पडिआह) शिष्य ने प्रतिप्रश्न किया-(भंते ! कहं नु दंते दविए वोसट्टकाएत्ति, माहणति या, समणेत्ति वा, भिक्खत्ति वा, णिग्गंथेत्ति वा वच्चे ?) हे भदन्त ! पन्द्रह अध्ययनों के कथित अर्थों (गुणों) से युक्त जो पुरुष इन्द्रिय-मनोविजयी है, मुक्तिगमनयोग्य (द्रव्य) है, एवं काया का व्युत्सर्ग कर चुका है, उसे क्यों माहन, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy