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________________ आदान : पन्द्रहवाँ अध्ययन ६७३ , किन्हीं अन्यतीर्थिकों का कथन है कि देव ही क्रमश: समस्त दुःखों का अन्त (नाश) करते हैं, दूसरे प्राणी नहीं, किन्तु यह सम्भव नहीं । क्योंकि इस आर्हत्प्रवचन में तीर्थंकर गणधर आदि का कथन है कि मनुष्य ही समस्त दुःखों का अन्त (नाश ) करते हैं । किन्हीं गणधर आदि का यह भी कथन है कि यह समुच्छ्रय- मनुष्यभव, आर्यक्षेत्र, सद्धर्मश्रवण आदि अभ्युदय प्राप्त होना दुर्लभ है, अथवा मनुष्य शरीररूप अभ्युदय प्राप्त करना बड़ा कठिन है ||१७|| जो जीव इस मनुष्य शरीर से भ्रष्ट हो जाता है, उसे फिर जन्मान्तर में सम्बोधि (सम्यग्दृष्टि ) प्राप्त होना अति दुर्लभ है । तथा बोधिप्राप्तियोग्य आत्मा (अन्तःकरण ) की शुभ परिणतिरूप लेश्या अथवा बोधिग्रहणयोग्य तेजस्वी देह पाना बड़ा कठिन है । एवं जो जीव धर्म की व्याख्या करते हैं, अथवा धर्म की प्राप्ति के योग्य हैं, उनकी लेश्या ( अन्तःकरणपरिणति) प्राप्त करना बहुत मुश्किल है ॥ १८ ॥ व्याख्या मोक्षप्राप्तियोग्य मनुष्य जन्म तथा अभ्युदय कितना दुर्लभ ? १६वीं से १८वीं गाथा तक में शास्त्रकार ने मोक्षप्राप्ति के योग्य, मनुष्य, मनुष्यभव, दुःखों का अन्त, तदनुरूय लेश्या आदि की दुर्लभता का उल्लेख करके यह ध्वनित कर दिया है कि मनुष्य मोक्षप्राप्ति के लिए भरसक पुरुषार्थ करे । श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि यह मैंने लोकोत्तर तीर्थंकर भगवान से या तीर्थंकर भगवान् के लोकोत्तर प्रवचन से सुना है कि मनुष्य ही सम्यग्दर्शन आदि की आराधना करके समस्त कर्म-क्षय करके मोक्ष को प्राप्त करते हैं, और निष्ठितार्थ यानी कृतार्थ हो जाते हैं । कई मनुष्य जिनके कर्म शेष रह जाते हैं, वे सौधर्म आदि विमानवासी देव हो जाते हैं । इससे आगे फिर वे इसी प्रकार कहते हैं-मनुष्य गति में ही मोक्षप्राप्ति ( सिद्धिप्राप्ति) होती है, अन्य गति में नहीं । अर्थात् मनुष्य ही सर्वकर्मों का क्षय करके मुक्ति को प्राप्त करता है, जो मनुष्य नहीं है, वह नहीं । इस कथन से शाक्यों ने जो यह कहा है कि देवता ही समस्त कर्मों को क्षय करके मोक्ष प्राप्त करते हैं, वह मान्यता खण्डित समझनी चाहिए, क्योंकि मनुष्य के अतिरिक्त जो तीन गतियाँ हैं, उनमें सम्यक्चारित्र का परिणाम नहीं है, इसलिए मनुष्य की तरह मोक्षप्राप्ति नहीं हो सकती । १७वीं गाथा में इसी बात को स्पष्ट करते हुए शास्त्रकार कहते हैं— 'अंत करंति दुक्खाणं इहमेस आहिये' आशय यह है कि किन्हीं मतवादियों का यह कथन है कि देवता ही उत्तरोत्तर स्थानों को प्राप्त करते हुए समस्त दुःखों का अन्त (नाश ) कर सकते हैं, मनुष्य नहीं । यह कथन युक्तियुक्त नहीं है । क्योंकि देव आदि भवों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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