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सूत्रकृतांग सूत्र
इतो विध्वंसमानस्य, पुनः सम्बोधिदुर्लभा । दुर्लभाश्च तथार्चाः, या धर्मार्थं व्यागृणन्ति ॥१८॥
अन्वयार्थ (उत्तरीए इयं सुयं) लोकोत्तर प्रवचन (तीर्थंकर की धर्मदेशना) में मैंने (सुधर्मास्वामी ने) यह (आगे कही जाने वाली) बात सुनी है कि (निठ्ठियट्ठा व देवा वा) मनुष्य ही कर्मक्षय करके सम्यग्दर्शनादि के आराधन से कृतकृत्य (निष्ठितार्थ) होते हैं ---यानी मुक्ति (सिद्धगति) प्राप्त करते हैं, अथवा कर्म शेष रहने पर सौधर्म आदि देव बनते हैं। (एयं एगेसि) यह मोक्षप्राप्ति (कृतकृत्यता) भी किन्हीं विरले मनुष्यों को ही प्राप्त होती है, (अमणुस्सेसु णो तहा) मनुष्य योनि या गति से भिन्न योनि या गति वाले प्राणियों को मनुष्यों के जैसी कृतकृत्यता या मुक्ति (सिद्धि) प्राप्त नहीं होती । (मे सुर्य) ऐसा मैंने तीर्थंकर भगवान् के मुख से साक्षात् सुना है ।।१६।।
(एगेसि आहियं) कई अन्यतीथिकों का कथन है कि देव ही समस्त दुःखों का अन्त करते हैं, मनुष्य नहीं; परन्तु ऐसा संभव नहीं है, क्योंकि (इह) इस आर्हत्प्रवचन में तीर्थंकर, गणधर आदि का कथन है कि मनुष्य ही (दुक्खाणं अंतं करंति) शारीरिक-मानसिक आदि समस्त दुःखों का अन्त करते हैं। इस सम्बन्ध में (एगेसि पुण आहियं) किन्हीं गणधर आदि का कथन है कि (अयं समुस्सए दुल्लहै) यह समुच्छ्य---समुन्नत विकसित मानव शरीर या मानव जन्म मिलना अत्यन्त दुर्लभ है, अथवा मनुष्य के बिना यह (आगे कहा जाने वाला) समुच्छ्य यानी धर्मश्रवणादिरूप अभ्युदय भी दुर्लभ है, फिर मोक्ष पाना तो दूर की बात है ॥१७॥
__ (इओ विद्धसमाणस्स) जो जीव इस मनुष्यभव से भ्रष्ट हो जाता है, उसे (पुणो संबोहि दुल्लहा) पुनः जन्मान्तर में सद्धर्म का बोध (सम्बोधि) प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ -- कठिन है । (तहच्चाओ दुल्लहाओ) सम्बोधि (सम्यग्दर्शन) प्राप्ति के योग्य तेजस्वी मनुष्यदेह अथवा बोधिग्रहण योग्य आत्म-परिणतिरूप शुभलेश्या प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ है। (जे धम्मठें वियागरे) जो जीव धर्म की व्याख्या करते हैं अथवा जो धर्म को प्राप्त करने या धर्म का अनुष्ठान पाने योग्य हैं, उनकी लेश्या प्राप्त करना दुर्लभ है ॥१८॥
भावार्थ मैंने तीर्थंकर भगवान के लोकोत्तर प्रवचन में सुना है कि मनुष्य ही कर्मक्षय करके मोक्ष पाकर कृतकृत्य हो जाते हैं अथवा कुछ कर्म शेष हों तो सौधर्म आदि देव होते हैं । तथा मैंने तीर्थंकर आदि से यह भी सुना है कि यह मोक्षप्राप्ति (कृतकृत्यता) भो किन्हीं विरले ही मनुष्यों को होती है, क्योंकि मनुष्य से भिन्न गति एवं योनि वाले जीवों में ऐसी योग्यता नहीं होती ॥१६॥
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