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सूत्रकृतांग सूत्र
विघात करने वाला आरम्भ है। मंत्री की साधना के लिए साधु प्राणियों के साथ अविरोधरूप ऋषि-मुनियों के इस धर्म को अपना जीवनधर्म (अपना स्वभाव) बना ले । साथ ही वह त्रसस्थावररूप दृश्यमान जगत् का या जीवों का स्वरूप जाने और अपनी व उनकी आत्मा को शान्ति (समाधि) देने वाली २५ प्रकार की भावनाओं का अनुप्रेक्षण करे।
मूल पाठ भावणाजोगसुद्धप्पा जले णावा व आहिया । नावा व तोरसंपन्ना, सव्वदुक्खा तिउटइ ॥५॥
संस्कृत छाया भावनायोगशुद्धात्मा, जले नौरिवाहितः । नौरिव तीरसम्पन्नः सर्वदुःखान् त्रुट्यति ।।५।।
__ अन्वयार्थ (भावणाजोगसुद्धप्पा) भावनारूपी योग से शुद्ध आत्मा वाला पुरुष (जले णावा व आहिया) जल में नाव के समान कहा गया है। (नावा व तीरसंपन्ना) किनारे पर पहुँची हुई नाव जैसे विश्राम करती है, वैसे ही (सव्वदुक्खा तिउट्टइ) उक्त पुरुष समस्त दुःखों से मुक्त-शान्त हो जाता है।
भावार्थ पूर्वोक्त २५ या १२ प्रकार की भावनाओं से जिसकी आत्मा शुद्ध (पवित्र हो गई है, वह पुरुष जल में नौका के समान संसारसमुद्र को पार करने में समर्थ कहा गया है। जैसे तट पर पहुँचकर नौका विश्राम करती है, वैसे ही भावना का साधक भी संसार समुद्र के तट पर पहुँच कर सारे ही दु:खों से छट जाता है।
व्याख्या भावनायोगसाधक की गति-मति
इस गाथा में भावनायोग के साधक की गति-मति का दिग्दर्शन कराया गया है। उत्तम भावना के योग से जिसका अन्तःकरण स्वच्छ एवं निर्मल हो गया है, जिसके अन्तर में क्रोधादि कालुष्य जरा भी नहीं रहा है, जिसके मन-मस्तिष्क में ईर्ष्या, द्वेष, वैर, विरोध, निन्दा, चुगली, विषयतृष्णा, लोकषणा आदि का जरा भी कण नहीं है, वह पवित्रात्मा पुरुष सांसारिकता के स्वभाव को छोड़कर जल में नाव की तरह संसारसागर में रहता हुआ भी संसारसागर के ऊपर-ऊपर तैरता रहता है । जैसे नाव जल में डूबती नहीं है, वैसे ही वह संसारसागर में डूबता नहीं है। जिस प्रकार उत्तम कर्णधार (नाविक) से युक्त और अनुकूल हवा से प्रेरित नाव
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