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________________ आदान : पन्द्रहवाँ अध्ययन ६५६ समस्त द्वन्द्वों से मुक्त होकर किनारे पहुँचकर विश्राम लेती है, उसी प्रकार उत्तम चारित्रवान् कर्णधार से युक्त जीवनरूपी नौका तप-संयमरूपी पवन से प्रेरित होकर दु.खात्मक संसार से छूटकर समस्त दुःखों के अभावरूप मोक्ष के तट पर पहुँच जाती है। मूल पाठ तिउट्टइ उ मेहावी, जाणं लोगंसि पावगं । तुटंति पावकम्माणि, नवं कम्ममकुव्वओ ॥६॥ संस्कृत छाया त्र ट्यति तु मेधावी जानन् लोके पापकम् । व ट्यन्ति पाप कर्माणि, नवं कर्माकुर्वतः ॥६॥ अन्वयार्थ (लोगसि पावगं जाणं) लोक में पापकर्म को जानने वाला (मेहावी उ तिउइ) बुद्धिमान पुरुष समस्त बन्धनों से छूट जाता है। (नवं कम्म अकुव्वओ) नवीन कर्मबन्ध न करने वाले पुरुष के (पावकम्माणि तिउति ) सभी पापकर्मों के बन्धन टूट जाते हैं। भावार्थ लोक में पापकर्म के स्वरूप को जानने वाला बुद्धिमान साधक सभी बन्धनों को तोड़ देता है। क्योंकि नया कर्मबन्धन न करने वाले पुरुष के सभी पापकर्मबन्धन टूट जाते हैं। व्याख्या बन्धनमुक्त मेधावी साधक पूर्वगाथा में भावनायोग से शुद्ध आत्मा की गति-मति बताई गई थी, उसी सन्दर्भ में इस गाथा में बताया गया है कि तथारूप शुद्धात्मा मन-वचन-काया द्वारा अशुभ यानी पाप से छूट जाता है, अथवा वह सब प्रकार के बन्धनों को तोड़ देता है । वह समस्त बन्धनों से मुक्त होकर संसारसागर से पार हो जाता है । कैसे मुक्त हो जाता है, इसकी संक्षिप्त प्रक्रिया शास्त्रकार बताते हैं -ति उट्टइ उ मेहावी . नवं कम्ममकुव्वओ।' अर्थात् -- शास्त्रोक्त साधु-मर्यादाओं में स्थित अथवा सद्असद्विवेकी साधक चौदह रज्जु परिमित तथा जीवों से भरे हुए इस लोक में सावद्यानुष्ठानरूप पापाचरण को अथवा उसके कार्यरूप अष्टविध कर्मों को या विशेषतः पाप-कर्मों को ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उनके कारणों का त्याग करके उनसे मुक्त हो जाता है । इस प्रकार लोक अथवा कर्म को जानने वाला तथा नवीन कर्मबन्ध न करने वाला यानी आस्रवद्वारों को रोकने वाला व्यक्ति पूर्वसंचित प्राचीन For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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