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आदान : पन्द्रहवाँ अध्ययन
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जगह भी इसी तरह का हो सकता है। इस तरह उनकी सत्यवादिता दूषित हो जाती है। फिर उनके किसी भी वचन पर विश्वास कैसे किया सकता है। अतः तीर्थकर भगवान् को अवश्य ही सर्वज्ञ मानना पड़ेगा, क्योंकि उनका वचन सदैव सत्य होता है।
इसीलिए उनके लिए कहा है---'सया सच्चेण"..."भूएहिं कप्पए।' अर्थात् तीर्थंकर सदा सत्य, प्राणियों के लिए हितकर वचन अथवा संयम (भूतहितकारी होने से) से सम्पन्न होकर प्राणियों में मैत्री की स्थापना-प्राणियों की रक्षा का उपदेश देकर भूतदया की स्थापना करते हैं।
__अथवा इस पंक्ति का विधिपरक यह अर्थ भी हो सकता है कि अतएव जिनोक्त वचनों का आराधक मुनि सदा सत्य से युक्त होकर सब प्राणियों के प्रति मैत्री करे या सर्वभूतदया का उपदेश देकर भूतदया की स्थापना करे।
मूल पाठ भूएहि न विरुज्झज्जा, एस धम्मे बुसीमओ । बुसीमं जगं परिन्नाय, अस्सि जीवितभावणा ॥४॥
संस्कृत छाया भूतैश्च न विरुध्येत, एष धर्मो वृषीमतः वषीमान् जगत् परिज्ञाय, अस्मिन् जीवितभावना ॥४॥
अन्वयार्थ (भएहि न विरुज्झेज्जा) प्राणियों के साथ वैर-विरोध न करे, (एस बुसीमओ धम्मे) यह सुसंयमी साधुओं का धर्म है । (असीम जगं परिन्नाय) सुसंयमी साधु त्रसस्थावररूप जगत् के स्वरूप को जानकर (अस्सि जीवितभावणा) इस तीर्थंकर प्ररूपित धर्म में जीवसमाधानकारिणी भावना करे ।
भावार्थ प्राणियों के साथ विरोध न करे, यह सूसंयमी साधुओं का धर्म है। इसलिए जगत् का स्वरूप जानकर वीतराग प्रतिपादित धर्म में जीवित भावना करे।
व्याख्या
प्राणिमात्र के साथ मंत्री की साधना का क्रम इस गाथा में मैत्री-साधना की एक झांकी प्रस्तुत की गई है। इसके लिए तीन क्रम प्रस्तुत किये हैं--(१) प्राणियों के साथ वैर-विरोध न करे, (२) त्रसस्थावर रूप जगत् का स्वरूप जाने (३) जीवों के या जीवन के लिए समाधानकारिणी या समाधिकारिणी भावना करे। प्राणियों के साथ विरोध का कारण प्राणियों का
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