SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1001
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६५६ सूत्रकृतांग सूत्र एवं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को जो मोक्ष का मार्ग बताया है वह सब मोक्ष के कारण तथा पूर्वापर से अविरुद्ध एवं युक्तिसंगत होने के कारण स्वाख्यात यानी यथार्थ सम्यक् कथन है। किन्तु अन्यतीर्थियों का कथन स्वाख्यात (पूर्वापर-अविरुद्ध एवं युक्तियुक्त) नहीं है क्योंकि अन्यतीर्थियों ने पहले तो 'मा हिस्यात सर्व भूतानि' (समस्त प्राणियों की हिंसा नहीं करनी चाहिए) ऐसी आज्ञा देकर फिर स्थान-स्थान पर जीवों के संहारक आरम्भ की आज्ञा दी है। इसलिए उनके द्वारा कथित वचन पूर्वापर विरुद्ध हैं तथा विचार करने पर युक्तिविरुद्ध हैं, इसलिए अन्यतीथिकों का कथन स्वाख्यात नहीं है। तीर्थंकरदेव अविरुद्ध अर्थभाषी होते हैं, क्योंकि उनमें मिथ्याभाषण के कारणरूप राग, द्वेष, मोह आदि दोष नहीं हैं । अतः अर्हत्स्वरूप के विज्ञाता पुरुष कहते हैं-तीर्थकर द्वारा प्ररूपित कथन ही सत्य है क्योंकि वे असत्य के कारणभूत राग-द्वष-मोह से रहित होते हैं और वे सर्वजीवहितैषी होते हैं । उनका कथन ही सुभाषित है, क्योंकि वही समस्त प्राणियों के लिए प्रियकर होता है। रागादि दोष ही असत्य एवं अप्रियभाषण के कारण रूप होते हैं, वे दोष अर्हन्त में नहीं हैं, इसलिए कारण के अभाव से कार्य का अभाव स्वत: सिद्ध है। कहा भी है - वीतरागा हि सर्वज्ञाः, मिथ्या न ब्रवते वचः । यस्मात तस्माद् वचस्तेषां तथ्यं भूतार्थदर्शनम् ।। अर्थात्-सर्वज्ञ पुरुष वीतराग होते हैं, वे मिथ्यावचन नहीं बोलते हैं, इसलिए सर्वज्ञ पुरुषों का वचन सत्य अर्थ का प्रतिपादक होता है। इस सम्बन्ध में कुछ लोगों का कहना है कि दूसरे दर्शनकारों में सर्वज्ञता न हो तो भी हेय-उपादेय मात्र के ज्ञान से भी सत्यवादिता हो सकती है । जैसे कि वे कहते हैं सर्वं पश्यतु वा मा वा, तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु । कीटसंख्यापरिज्ञानं, तस्य न: क्वोपयुज्यते ॥ अर्थात्--मार्गदर्शक पुरुष सब पदार्थों या जीवों को जाने-देखे या न जाने-देखे, केवल अभीष्ट पदार्थों को जान देख ले। कीड़ों की संख्या का ज्ञान हो जाय तो भी वह हमारे किस काम का ? इस शंका का समाधान शास्त्रकार करते हैं-'से य सच्चे सुआहिए।' तीर्थकरों का कथन सदा सत्य और सुभाषित होता है। सत्य, सर्व हितकर एवं प्रिय भाषण सर्वज्ञता होने पर ही किया जा सकता है, अन्यथा नहीं। जिनमें सर्वज्ञता नहीं है, उन्हें जैसे कीड़ों की संख्या का ज्ञान नहीं है, वैसे ही दूसरे पदार्थों का ज्ञान न होना भी सम्भव है । इसलिए कहा है- सदृशे बाधासंभवे तल्लक्षणमेव दूषितं स्यात् । एक जगह उक्त पुरुष का ज्ञान बाधित और असम्भवित होने पर दूसरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy