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________________ ३१५ , जंबुद्दीवपण्णत्ती हारा खोद्दाहारा कुणिमाहारा कालमासे कालं किच्चा कहि गच्छिहिति ? कहि उववज्जिहिति ? गोयमा ! ओसण्णं णरगतिरिक्खजोणिएसु' उववज्जिहिति ॥ १३८. तीसे समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं काले वीइक्कंते आगमेस्साए उस्सप्पिणीए सावण बहुलपडिवए बालवकरणंसि अभीइणक्खत्ते चोट्सपढमसमये अनंतेहि दण्णपज्जवेहि अणतेहि गंधपज्जवेहिं अणतेहि रसपज्जवेहि अणतेहि फासपज्जवेहि अणतेहि संघयणपज्जवेहि अणतेहि संठाणपज्जवेहि अनंतेहि उच्चत्तपज्जवेहिं अणतेहि आउपज्जवेहि अणतेहिं गरुयल हुयपज्जवेहिं अणतेहिं अगरुयल हुयपज्जवेहि अणतेहि उद्वाणकम्म-बल-वीरिय-पुरिसक्कार- परक्कमपज्जवेहि अनंतगुणपरिवड्ढीए परिवड्ढेमाणे- परिवड्ढेमाणे, एत्थ णं दुसमद्समाणामं समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो ! ॥ १३६. तीसे णं भंते ! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभाव पडोयारे भविस्सइ ? गोयमा ! काले भविस्सइ हाहाभूए भंभाए एवं सो चेव दूसमदू समावेढो यव्वों ॥ १४०. तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहि काले विइक्कते अणतेहि वण्णपज्जवेहिं' 'अणतेहि गंधपज्जवेहि अणतेहि रसपज्जवेहि अणंतेहिं फासपज्जवेहि अणंतेहि संघयणपज्जवेहि अणतेहि संठाणपज्जवेहि अणतेहि उच्चत्तपज्जवेहि अहि आउपज्जयेहि अणंतेहिं गरुयल हुयपज्जवेहि अणंतेहि अगरुयल हुयपज्जवेहि अणतेहि उट्ठाण - कम्म-वल-वीरिय-पुरिसक्कार- परक्कमपज्जवेहि अनंतगुणपरिवड्ढीए परिवड्ढेमाणे- परिढेमाणे, एत्थ णं दूसमाणामं समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो ! ॥ १४१. तेणं कालेणं तेणं समएणं पुक्खलसंवट्टए गामं महामे हे पाउ भविस्सइ -- भरहप्पमाणमेते आयामेणं, तदणुरूवं चणं विक्खंभ - वाहल्लेणं' । तए णं से पुक्खल संवट्टए महामे खिप्पामेव तणतणाइस्सर, पतणतणाइत्ता खिप्पामेव पविज्जुयाइस्सइ, पविज्जुयाइत्ता खिप्पामेव जुग मुसल-मुट्ठिप्यमाणमेत्ताहि धाराहि ओघमेधं सत्तरतं वासं वासिस्सइ, जेण भरहस्स वासस्स भूमिभागं इंगालभूयं मुम्मुरभूयं छारियभूयं तत्तकवेल्लुगभूयं' तत्तसमजोइभूयं णिव्वाविस्सति ॥ १४२. तंसि च णं पुक्खल संवट्टगंसि महामेहंसि सत्तरत्तं णिवतितंसि समाणंसि, एत्थ पं खीरमेहे णामं महामेहे पाउभविस्सइ - भरप्यमाणमेत्ते आयामेणं, तदणुरूवं च णं विक्खंभवाहल्लेणं । तए णं से खीरमेहे णामं महामेहे खिप्पामेव पतणतणाइस्सइ" पतणतणाइत्ता खिप्पामेव पविज्जुयाइस्सइ, पविज्जुयाइत्ता' खिप्पामेव जुग मुसल-मुट्ठि" प्यमाणमेत्ताहि १. तिरिख जाव ( अ. क, ख, त्रि, प, ब, स ) 1 २. आगमेसाए (अव) । ३. सं० पा० - वण्णवज्जवेहिं जाव अनंत ४. वेढओ (१) । यू. जं० २।१३१-१३७ । ६. सं० पा०वण्णवज्जयेहिं जाव णंतगुण | ७. तदाणुरुवं (अ, क, ख, प, ब, स ) सर्वत्र । Jain Education International ८. बाहुले ( अ, ब ) । ६. क विल्लय° ( क ) ; ल्ल कविलग° (ख); कवे(त्रि,व) ° कवेलूय° ( प ) 1 १०. णिव्ववेसइ ( अव ); णिव्ववेस्सति ( क प ) ; णिव्ववेस्सति ( ख ); णिव्वावेस्सति (त्रि ) । ११ सं० पा० पतणतण इस्सर जाव खिप्पामेव । १२. सं० पा० - जुगमुसलमुट्ठि जाव सत्तरतं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003572
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Jambuddivpannatti Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages617
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size12 MB
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