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के अभिप्राय को जाने बिना मनमाने ढंग से व्याख्या करना उनकी अवहेलना करना है ।" सूत्र की आशातना या अवहेलना न हो इस दृष्टिकोण ने पाठ और अर्थ की परम्परा को सुरक्षित रखने में काफी योग दिया है फिर भी बुद्धि की तरतमता और लिपिप्रमाद के कारण पाठ और अर्थ में परिवर्तन हुआ है । पाठ को विवित्रता के कारण हमें भी पाठ के निर्धारण में काफी श्रम करना पड़ा है । पाठान्तर और उनके टिप्पणों से उसका अंकन किया जा सकता है ।
'ता' संकेतित प्रति संक्षिप्त पाठप्रधान है, जैसे ९:४१ सूत्र से "ताई भंते कि पुडाई आहारैति अपु गोयमा पुट्ठा णो अपु । आंगा णी अणोगा अनंतर नवरं अणूई पि आ बायराई पिआ उड्ढं वि इ आदि पिइ सविस अविस आणुपुवि णो अणापुवि आच्छद्दि वाघातं पसिय तिदिसि क । नो वण्णतो काला नी गंध सु २ सोनो फासहो कि पौराणं विपरिणामेत्ता अपुव्व वण्ण गुण ष्क उप्पाएत्ता आतसरीर खेत्तांगाडे पोग्गले सवप्पणत्ताए आहारमाहारंति" ।
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लिपि - दोष के कारण “किं तिदिसि के स्थान में "कतिदिसि " पाठान्तर नहीं लिया है, वहां पाठ बहुत संक्षिप्त है ।
शब्दान्तर और रूपान्तर
१।१
जिणवखायं
12
23
શ
21
"
१६
११२१
१२६
१/७२
अणुवी
रोएमाणा
संघयण
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सण्णाओ
जोगे
कोहसाए
कण्हलेस्सा
आणपा
छीरविरालिया
'ता' का अनेक जगह
जिणखायं
अणुवीतियं रोतमाणा
संघतण
सण्णाती
जोगुवोगे
कोहका
किण्हलस्सा
(ग, ट) (ट)
आणपाण
छिरविरालिया ( क ) छिरिविरालिया ( ख )
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जिणखातं
१. जीवाजीवाभिगम वृ०५० ४५० -
"सूत्राणि मूनि विचित्राभिप्रायतया दुर्लक्ष्याणीति सम्यक्संप्रदायादवसातम्यानि, सम्प्रवायश्च यथोक्तस्वरूप इति न काचिदनुपपत्तिः न च सूत्राभिप्रायमज्ञात्वा अनुपपत्तिरुद्भावनीया, महाशातनायोगतो महानर्थप्रसक्तेः सूत्रकृतो हि भगवन्तो महीयांसः प्रमाणीकृताश्च महीयस्तरस्तस्कालर्वात भिरन्यै विद्वद्भिस्ततो न तत्सूत्रेषु ननागप्यनुपपत्तिः केवलं सम्प्रदायावसाये यत्नो विषेयः ये तु सूत्राभिप्रायनज्ञात्वा यथा कथञ्चिदनुपपत्तिमुद्भावयन्ते ते महतो महीयस श्राशातयन्तीति दीर्घ तर संसारभाजः, आह् च टीकाकारः "एवं विचित्राणि सूत्राणि सम्यक्संप्रदायादवसेयानीत्यविज्ञाय तदभिनायं नानुपपत्तिचोदना कार्या, महाशातनायोगतो महानर्थप्रसंगादिति" एवं च ये सम्प्रति दुष्षमानुभावतः प्रवचनस्योपप्लवाय धूमकेतव इवोत्थिताः सकलकाल सुकराम्यवच्छिन्नसुविधिमार्गानुष्ठातृ सुविहितताधुषु मत्सरिगस्तेऽपि वृद्धपरम्परायातिसम्प्रदायादवसेयं सूत्राभिप्रायमपास्योत्सूत्रं प्ररूपवतो नहाशातनाभाज. प्रतिपत्तव्या अपकर्ण यितव्याश्च दूरतस्तत्यवेदिभिरिति कृतं प्रसङ्गेन" ।
(ar)
(क, ख )
(ता)
(ता)
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