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________________ २१ उपाध्याय शान्तिचन्द्र ने कल्पवृक्ष के विवरण का पाठ जीवाजीवाभिगम से उद्धृत किया है । चतुर्थ कल्पवृक्ष के स्वरूप वर्णन में उन्होंने 'कणग निगरण' पाठ उद्धृत किया है । उसका अर्थ किया है सुवर्ण राशि । जीवाजीवाभिगम की वृत्ति में 'कणग निगरण' पाठ व्याख्यात है - "कनकस्थ निगरणं कनकनिगरणं गालितं कनकमिति भावः । लिपि परिवर्तन के कारण पाठ परिवर्तन हुआ है। आदर्शो में 'कूडागारट्ठ' पाठ मिलता है। मुद्रित तथा हस्तलिखित वृत्ति में भी ' कूटागाराद्यानि ' पाठ उपलब्ध होता है । जीवाजीयाभिगम की वृत्ति में यह व्याख्यात नहीं है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की वृत्ति में इसकी व्याख्या मिलती है-" कूटाकारेण शिखराकृत्यायानि"" आचार्य मलयगिरि ने आदर्शगत पाठभेद का स्वयं उल्लेख किया है। वृत्तिकार ने जिन गाथाओं को अन्यत्र कहकर उद्धृत किया है। अर्वाचीन आदशों में वे गाथाएं मूल पाठ में समाविष्ट हो गई । " वृति में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की टीका का उल्लेख मिलता है । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के व्याख्याकार मलयगिरि के उत्तरवर्ती ही हैं। इसलिए यह उल्लेख प्रक्षिप्त है अथवा मलयगिरि के सामने उसकी कोई प्राचीन व्याख्या रही है यह अन्वेषण का विषय है । कहीं-कहीं वृत्ति में भी कुछ विमर्शनीय लगता है । 'सिरिवच्छ' पाठ की व्याख्या वृतिकार ने 'श्रीवृक्ष' की है । प्रकरण की दृष्टि से 'श्रीवत्स होना चाहिए। टीकाकार और मलयगिरि के सामने पाठभेद तथा अर्थभेद की जटिलता रही है और मूल व्याख्याकारों के समय में इस विषय में कुछ चर्चाएं भी होती रही हैं। इस विषय में वृत्ति का एक उल्लेख बहुत ही ऐतिहासिक महत्त्व का है । वृत्तिकार ने लिखा है कि यह सूत्र विचित्र अभिप्राय वाला होने के कारण दुर्लक्ष्य है। इसकी व्याख्या सम्यक् सम्प्रदाय के आधार पर ही ज्ञातव्य है । सूत्र १. जम्बूद्वीप वृ० प० १०२ – “कनकनिकरः सुवर्ण राशिः ।" २. जीवाजीवाभिगम वृ० प० २६७ ॥ ३. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति वृ० प० १०७ देखें जीवाजीवाभिगम ३५६४ का पादटिप्पण । ४. (क) जीवाजीवाभिगम वू० प ३२१ "इह बहुषा सूत्रेषु पाठभेदाः परमेतावानेव सर्वत्राप्यर्थी नार्थ मेदान्तरमित्येतद्व्याख्यानुसारेण सर्वेप्यनुगन्तव्या न मोग्धव्यमिति ।" (ख) जीवा० वृ० प० ३७६ इह भूयान् पुस्तकेषु वाचनाभेदो गलितानि च सुत्राणि बहुषु पुस्तकेषु ततो यथाऽवस्थितवाथनामेदप्रतिपत्यर्थंगलितसूत्रोद्धरणार्थं चैवं सुगमान्यपि विद्रियन्ते । 1 ५. जीवा वृ०प० ३३१, ३३३, ३३४ तथा ३८२०, ८३०, ८३४, ८३७ के पादटिप्पण ब्रष्टव्य हैं ६. जीवाभिगम वृ०प० ३८२ क्वचित्तिहादीनां वर्णनं दृश्यते तद् बहुषु पुस्तकेषु न दृष्टमित्युपेक्षितं अवश्यं चेत्तद्वयाख्यानेन प्रयोजनं तर्हि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति टीका परिभावनीया, तत्र सविस्तरं तब् व्याख्यानस्य कृतत्वात् । ७. जीवा जीवाभिगम वृ०प० २७१- 6 'श्रीवृक्षेणांकितं - लामिछतम् वृक्षो येषां ते श्री वृक्षलाञ्छित वक्षस: " 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003570
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Jivajivabhigame Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages639
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size13 MB
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