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________________ २६ के अभिप्राय को जाने बिना मनमाने ढंग से व्याख्या करना उनकी अवहेलना करना है। सूत्र की आशातना या अवहेलना न हो इस दृष्टिकोण ने पाठ और अर्थ की परम्परा को सुरक्षित रखने में काफी योग दिया है फिर भी वृद्धि की तरतमता और लिधिप्रमाद के कारण पाठ और अर्थ में परिवर्तन हुआ है। पाठ को विविधता के कारण हमें भी पाठ के निर्धारण में काफी श्रम करना पड़ा है। पाठान्तर और उनके टिप्पणों से उसका अंकन किया जा सकता है। ता संकेतित प्रति संक्षिप्त पाठप्रधान है, जैसे १:४१ सूत्र से .-"ताई भंते कि पुडाइं आहारैति अपु मोयमा पुट्ठा णो अपु । आगा णा अणोगा अणंतर। णवरं अणूई नि आ बायराई पिआ उड्ढं वि इ आदि पि इ सविसए णो अविस आणुपुटिव णो अणामपुटिव आच्छदि वाघातं प सिय तिदिसि क । नो वष्णतो काला नी गंधती सु २ सतो नो फासहो ते पाराणं विपरिणामेत्ता अपुव वण्ण गुण ष्क उप्पाएत्ता आतसरीर खेतीगाढ़े पागले सध्यप्पणत्ताए आहारमाहारंति"। लिपि-दोप के कारण "कि तिदिसि के स्थान में "कतिदिसि" (क)। 'ता' का अनेक जगह पाठान्तर नहीं लिया है, वहां पाठ बहुत संक्षिप्त है। शब्दान्तर और रूपान्तर ११ जिणक्खायं जिणखायं (ख) जिणखातं (ता) अणुवीइ अणुवीतियं (क,ख) रोएमाणा रोतमाणा (ता) संधयण संघतण सण्णाओ सग्णातो जोगुवओगे जोगुवतोगे कोहकसाए कोहकसाते ११२१ कण्हलेस्सा किण्हलेस्सा (ग,ट) श२६ आणपाणु आणपाण' (ट) १।७२ छीरविरालिया छिरविरालिया (क) छिरिविरालिया (ख) १।१४ १. जीवाजीवाभिगम वृ०५० ४५० -- "सूत्राणि हामूनि विचित्राभिप्रायतया दुर्लक्ष्याणीति सम्यक्संप्रदायादवसातव्यानि, सम्प्रदायश्च यथोक्तस्वरूप इति न काचिदनुपपत्तिः, न च सूत्राभिप्रायमज्ञात्वा अनुपपत्ति सद्भावनीया, महाशातनायोगतो महाऽनर्थप्रसक्तेः सूत्रकृतो हि भगवन्तो महीयांसः प्रमाणीकृताश्च महीयस्तरस्तकालवत्तिभिरन्यविद्भिस्ततो न तत्सूत्रेषु जनागप्यनुपपत्तिः, केवलं सम्प्रदायावसाये यत्नो विधेयः ये तु सूत्राभिप्रायभज्ञात्वा यथा कविइनुपपत्तिमुद्भावयन्ते ते महतो महीयस प्राशा. तयन्तीति दीर्घतरसंसारभाजः, आह च टीकाकारः - "एवं विचित्राणि सूत्राणि सम्यक्संप्रदायादवसेयानीत्यविज्ञाय तदभिवाय नानुपपत्तिचोदना कार्या, महाशातनायोगतो महाऽनर्थप्रसंगादिति" एवं च ये सम्प्रति दुषमानुभावतः प्रवचनस्थोपप्लवाय धूमकेतव इवोस्थिताः सकलकाल सुकराब्यच्छिन्नसुविधिमार्गानुष्ठातृसुविहिलसाधुषु मत्सरिमस्तेऽपि वृद्धपरम्परायातसम्प्रदायादवसेयं सूत्राभिप्रायमपास्योत्सूत्रं प्ररूपवतो नहाशासनाभाज. प्रतिपत्तव्या अपकर्णयितव्याश्च दूरतस्तत्ववेदिभिरिति कृतं प्रसङ्गेन", Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003569
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Raipaseniyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size9 MB
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