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________________ पएसि-कहाणगं कंचुइ-पुरिसं सद्दावेइ, सद्दावेता एवं वयासी---'कि णं" देवाणु प्पिया! अज्ज सावत्थीए नगरीए इंदमहेइ वा जाव सागरमहेइ वा ? 'जणं" इमे बहवे उग्गा उग्गपुत्ता भोगा [जाव ?] णिग्गच्छति ।। कंचुइपुरिसस्स निवेदण-पदं ६८६. तए णं से कंचइ-पुरिसे केसिस्स कुमारसमणस्स आगमण-गहिय-विणिच्छए चित्तं सारहिं करयलपरिगहियं 'दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ°, वडावेत्ता एवं क्यासी--णो खलु देवाणुप्पिया ! अज्ज सावत्थीए णयरीए इंदमहे इ वा जाव' सागरमहे इ वा । जं णं इमे वहवे उग्गा उग्गपुत्ता जाव' वंदावंदरहिं निगच्छंति । एवं खलु भो ! देवाणुप्पिया ! पासावच्चिज्जे केसी नाम कुमार-समणे जातिसंपण्णे जाव' गामाणुगामं दूइज्जमाणे इहमागए' 'इह संपत्ते इह समोसढे इहेव सावत्थीए णगरीए बहिया कोट्ठए चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, तेणं अज्ज सावत्थीए नयरीए वहवे उग्गा जाव इब्भा इन्भपुत्ता अप्पेगतिया वंदणवत्तियाए 'अप्पेगइया पूयणवत्तियाए अप्पेगइया सक्कारवत्तियाए अप्पेगइया सम्माणवत्तियाए अप्पेगइया सणवत्तियाए अप्पेगइया कोऊहलवत्तियाए अप्पेगइया अस्सयाई सणेस्सामो सयाई निस्संकियाई करिस्सामो, अप्पेगइया मंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइस्सामो, अप्पेगइया गिहिधम्म पडिवज्जिस्सामो, अप्पेगइया जीयमेयंति कटु व्हाया कयबलिकम्मा कय-को उय-मंगल-पायच्छिता सिरसा कंठेमाल कडा आविद्धमणि-सुवण्णा कप्पियहारद्धहार-तिसरपवर-पालंव-पलंबमाण-कडिसुत्त-सुकय-सोहाभरणा पवरवत्थ-परिहिया चंदणोलित्तगायसरीरा अप्पेगइया हयगया अप्पेगइया गयगया अप्पेगइया रहगया अप्पेगइया सिवियागया अप्पेगइया संदमाणियागया अप्पेगइया पायविहारचारेणं' महया-महया वंदावंदएहि णिग्गच्छति ॥ चित्तस्स केसि-समीवे गमण-पदं ६६०. तए णं से चित्ते सारही कंचुइ-पुरिसस्स अंतिए एयम→ सोच्चा निसम्म हट्टतुटु'"- चित्तमाणं दिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिस-वस-विसप्पमाण-हियए कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया ! चाउग्घंट" आसरहं जुत्तामेव उवट्ठवेह, 'उवट्ठवेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह ॥ ६६१. तए णं ते कोथुवियपुरिसा तहेव पडिसुणित्ता खिप्पामेव सच्छत्तं जाव जुद्धसज्जं १. किण्हं (क,घ,च,छ)। ६. राय० सू० ६८६ ।। २. जाव (क, ख, ग, घ, च,छ); अत्र भोगा इत्य- ७. सं० पा०—इहमागए जाव विहरइ । स्यानन्तरं जाव शब्दो युज्यते, किन्तु लिपि- ८. सं० पा०-वंदणवत्तियाए जाव महया। दोषात 'जं णं' इत्यस्य स्थाने लिखित: १. द्रष्टव्यं ६८५ सूत्रस्य पादटिप्पणम् । प्रतीयते । १०. मं० पा०-हट्टतुटु जाव हियए। ३. सं० पा० करयलपरिग्गहियं जाव वद्धा- ११. चाउघंट (क, ख, ग, घ, च, छ) । द्रष्टव्यं वेत्ता। ६८१ सूत्रम् । ४,५. राय० सू०६८८ । १२. सं. पा.-उववेह जाव सच्छत्तं उवति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003569
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Raipaseniyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size9 MB
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