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नवमं अभियगं (मायंदी)
२१७ जिणरक्खियविवत्ति-पदं ४१. तए णं से जिणरक्खिए चलमणे तेणेव भूसणरवेणं कण्णसुहमणहरेणं तेहि य
सप्पणय-सरल-महुर-भणिएहिं संजाय-विउण-राए रयणदोवस्स देवयाए तीसे सुंदरथण-जहण'-वयण-कर-चरण-नयण-लावण्ण-रूव-जोवण्णसिरि च दिव्वं सरभस-उवाहियाई विब्बोय-विलसियाणि' य विहसिय-सकडक्खदिट्टि'-निस्ससिय-मलिय'-उवललिय'-थिय-गमण-पणय खिज्जिय-पसाइयाणि य सरमाणे
रागमोहियमती अवसे कम्मवसगए अवयक्खइ मांगतो सविलियं ॥ ४२. तए णं जिणरक्खियं समुप्पण्णकलुणभावं मच्चु-गलत्थल्ल-गोल्लियमई अवय
क्खंत तहेव जक्खे उ सेलए जाणिऊण सणियं-सणियं" उव्विहइ नियगपट्टाहि विगयसद्धे । तए णं सा रयणदीवदेवया निस्संसा कलुणं जिणरक्खियं सकलुसा" सेलगपट्टाहि" ओवयंत-दास ! मनोसि त्ति जंपमाणी अपत्तं सागरसलिलं गेण्हिय बाहाहि पारसंतं उड्ढं उम्विहइ अंबरतले प्रोवयमाणं च मंडलग्गेण पडिच्छित्ता नीलुप्पल-गवलगुलिय-अयसिकुसुमप्पगासेण" असिवरेण खंडाखंडि करेइ, करेत्ता तत्थेव" विलवमाणं तस्स य सरस-वहियस्स घेत्तूणं अंगमंगाई सरुहिराई
उक्खित्तबलि चउद्दिस करेइ, सा पंजली पहिवा" ॥ ४४. एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा पायरिय-उवझायाणं
अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराम्रो अणगारिय पव्वइए समाणे पुणरवि माणुस्सए कामभोगे आसयइ पत्थयइ पीहेइ अभिलसइ, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूर्ण समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाण य हीलणिज्जे जाव" चाउरतं संसारकतारं भुज्जो-भुज्जो अणुपरियट्टिस्सइ-जहा व से जिणरक्खिए ।
१. जषण (ख)।
नोपलभ्यते (वृपा)। २. लायण्ण (क, ख)।
१२. विगयसत्थे (वृ); विगयसद्धे (वृपा) । ३. विलवियाणि (क, ख)।
१३. अकलुणा (क)। ४. कडक्ख ° (क, ख)।
१४. ° पुढाहिं (घ)। ५. मणिय (वृपा)।
१५. असीयप्पगासेण (ग)। ६. ललिय (वृपा)।
१६. तत्थ (ग, घ)। ७. कम्मवसवेगनडिए (वृपा)।
१७. चाउद्दिस (क)। ८, सविल वियं (ग)।
१८. पहट्ठा (क, ख)। ६. गलत्थ (क); गल्लत्थल्ल (ख)। १६. ना० १।३।२४। १०,११. 'तहेव, सणियं' इत्येतत् पदद्वयं वाचनान्तरे
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