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________________ ३२ जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने । फिर भी ग्यारह अंगों को सुलभ नहीं था । अंगों की रचना अल्पमेधा व्यक्तियों के लिए की गई। बताया है कि 'दृष्टिवाद में समस्त शब्द- ज्ञान का अवतार हो जाता है रचना अल्पमेधा पुरुषों तथा स्त्रियों के लिए की गई'। ग्यारह अंगों को वे ही साधु पढ़ते थे, जिनकी प्रतिभा प्रखर नहीं होती थी । प्रतिभा सम्पन्न मुनि पूर्वों का अध्ययन करते थे । आगम-विच्छेद के क्रम से भी यही फलित होता है कि ग्यारह अंग दृष्टिवाद या पूर्वो से सरल या भिन्नक्रम में रहे हैं । दिगम्बर परम्परा के अनुसार वीर- निर्वाण वासठ वर्ष बाद केवली नहीं रहे। तक श्रुत- केवली (चतुर्दश-पूर्वी) रहे । उनके पश्चात् एक सौ तिरासी वर्ष तक पश्चात् दो सौ बीस वर्ष तक ग्यारह अंगधर रहें । उनके बाद सौ वर्ष दशपूर्वी रहे। उनके उक्त चर्चा से यह स्पष्ट है कि जब तक आचार आदि अंगों की रचना नहीं हुई थी, तब तक महावीर की श्रुत राशि 'चौदह पूर्व' या 'दृष्टिवाद' के नाम से अभिहित होती थी और जव आचार आदि ग्यारह अंगों की रचना हो गई, तव दृष्टिवाद को बारहवें अंग के रूप में स्थापित किया गया । raft वारह अंगों को पढ़ने वाले और चौदह पूर्वो को पढ़ने वाले --ये भिन्न-भिन्न उल्लेख मिलते हैं, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि चौदह पूर्वो के अध्येता बारह अंगों के अध्येता नहीं थे और बारह अंगों के अध्येता चतुर्दश-पूर्वी नहीं थे। गौतम स्वामी को 'द्वादशांग वित्' कहा गया है । वे चतुर्दश-पूर्वी और अंगधर दोनों थे। यह कहने का प्रकार-भेद रहा है कि श्रुतकेवली को कहीं 'द्वादशांगवित्' और कहीं 'चतुर्दश-पूर्वी' कहा गया है । ग्यारह अंग पूर्वो से उद्धृत या संकलित हैं। इसलिए जो चतुर्दश-पूर्वी होता है, वह स्वाभा विक रूप से द्वादशांगवित होता है। वारहवें अंग में चौदह पूर्व समाविष्ट हैं। इसलिए जो द्वादशांगविद होता है, वह स्वभावत: चतुर्दश-पूर्व होता है। अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आगम के प्राचीन वर्गीकरण दो ही हैं--चौदह पूर्व और ग्यारह अंग । द्वादशांगी का स्वतन्त्र स्थान नहीं है। यह पूर्वी और अंगों का संयुक्त नाम है । कुछ आधुनिक विद्वानों ने पूर्वो को भगवान् पार्श्वकालीन और अंगों को भगवान् महावीर कालीन माना है, पर यह अभिमत संगत नहीं है। पूर्वो और अंगों की परम्परा भगवान् अरिष्टनेमि और भगवान् पार्श्व के युग में भी रही है। अंग अल्पमेधा व्यक्तियों के लिए रचे गए, यह पहले बताया जा चुका है। भगवान् पार्श्व के युग में सब मुनियों का प्रतिभा स्तर समान था, यह कैसे १. विशेषावश्यक भाष्य गाथा ५५४ : जइवि य भूतादाए, सव्वस्स वयोगयस्स श्रोयारो । निज्जूहणा तहावि हु, दुम्मे हे पप्प इत्थी य ॥ २. जयधवला, प्रस्तावना पृष्ठ ४६ । ३. देखिए — भूमिका का प्रारम्भिक भाग । ४. उत्तराध्ययन, २३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003560
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1975
Total Pages267
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size5 MB
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