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________________ भगवान् पार्श्व के साढ़े तीन सौ चतुर्दशपूर्वी मुनि थे। भगवान् महावीर के तीन सौ चतुर्दशपूर्वी मुनि थे । समवायांग और अनुयोगद्वार में अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य का विभाग नहीं है। सर्व प्रथम यह विभाग नन्दी में मिलता है। अंग-बाह्य की रचना अर्वाचीन स्थविरों ने की है। नंदी को रचना से पूर्व अनेक अंग-बाह्य ग्रन्थ रचे जा चुके थे और वे चतुर्दश-पूर्वी या दस-पूर्वी स्थविरों द्वारा रचे गये थे। इस लिए उन्हें आगम की कोटि में रखा गया। उसके फलस्वरूप आगम के दो विभाग किए गए--अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य । यह विभाग अनुयोगद्वार (वीर-निर्वाण छठी शताब्दी) तक नहीं हुआ था । यह सबसे पहले नंदी (वीर-निर्वाण दसवीं शताब्दी) में हुआ है। नंदी की रचना तक आगम के तीन वर्गीकरण हो जाते हैं--पूर्व, अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य । आज 'अंग-प्रविष्ट' और 'अंग-बाह्य' उपलब्ध होते हैं, किन्तु पूर्व उपलब्ध नहीं हैं । उनकी अनुपलब्धि ऐतिहासिक दृष्टि से विमर्शनीय है। २. पूर्व जैन परम्परा के अनुसार श्रुत-ज्ञान (शब्द-ज्ञान) का अक्षयकोष 'पूर्व' है। इसके अर्थ और रचना के विषय में सब एक मत नहीं हैं। प्राचीन आचार्यों के मतानुसार 'पूर्व' द्वादशांगी से पहले रचे गए थे, इसलिए इनका नाम 'पूर्व' रखा गया। आधुनिक विद्वानों का अभिमत यह है कि 'पूर्व' भगवान पावं की परम्परा की श्रुत-राशि है। यह भगवान महावीर से पूर्ववर्ती है, इसलिए इसे 'पूर्व' कहा गया है। दोनों अभिमतों में से किसी को भी मान्य किया जाए, किन्तु इस फलित में कोई अन्तर नहीं आता कि पूर्वो की रचना द्वादशांगी से पहले हुई थी या द्वादशांगी पूर्वो की उत्तरकालीन रचना है। वर्तमान में जो द्वादशांगी का रूप प्राप्त है, उसमें 'पूर्व' समाए हुए हैं। बारहवां अंग दृष्टिवाद है । उसका एक विभाग है--पूर्वगत । चौदह पूर्व इसी 'पूर्वगत' के अन्तर्गत हैं। भगवान महावीर ने प्रारंभ में पूर्वगत-श्रुत की रचना की थी। इस अभिमत से यह फलित होता है कि चौदह पूर्व और वारहवां अंग--ये दोनों भिन्न नहीं हैं। पूर्वगत-श्रुत बहुत गहन था। सर्वसाधारण के लिए वह १. समबाओ, पइयणगसमवाओ, सू०१४ । २. वही, सू० १२ ३. समवायांग वृत्ति, पत्र १०११ प्रथनं पूर्व तस्य सर्वप्रवचनात् पूर्व क्रियमाणत्वात् । ४. नन्दी, मलयगिरि वृत्ति, पत्र २४० : अन्ये तु व्याचक्षते पूर्व पूर्वगतसूत्रार्थमहन् भाषते, गणघरा अपि पूर्व पूर्वगतसूत्रं विरचन्ति, पश्चादाचारादिकम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003560
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1975
Total Pages267
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size5 MB
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