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और प्रत्येक पंक्ति में लगभग ३२ अक्षर लिखे हए हैं। इसकी लंबाई १० व चौड़ाई ४३ इंच है। प्रति सुन्दर लिखी है । अन्त में लिपि संवत् नहीं है, अनुमानत: १६ वीं शताब्दी की होनी चाहिए। (ग) मूलपाठ (हस्तलिखित)
यह प्रति विनयसागर जयपुर द्वारा प्राप्त है। इसके पत्र ५३ हैं, परन्तु प्रथम पत्र नहीं है । इसमें 8 पंक्तियां व प्रत्येक पंक्ति में लगभग ४० अक्षर हैं। इसकी लंबाई १२ इंच व चौडाई ४१ इंच है । अन्त में निम्न पुष्पिका है
ग्रन्थाग्र १२१६।। अहं श्री वीरवाक्याऽनुमतं सु पर्व कृतं यथा पर्युषणाख्यमेतत् । श्री कालिकाचार्यवरेण संघे तथा चतुर्था श्रृणु पंचमीत समग्र देशागत तसुवारं पु० ।
प्रति अनुमानत: १६वीं शताब्दी की होनी चाहिए। (घ) मूलपाठ (हस्तलिखित) (घ) यह संक्षिप्त है। इसमें नमि से अजित तक वर्णन नहीं है। इसके स्थान पर इस प्रकार लिखा हुआ है-अथाग्रे चतुर्विशति २४ जिनानामं उत्तरकालम् ।
सूत्र १८३ से २२२ तक थेरावलि नहीं है। (चू०) चूणि (अ०) अवचूरि (कल्प कि) कल्पकिरणावलि
कप्पो
इसका प्रतिपरिचय प्रमादवश गुम हो गया, अत: उसका यहां समावेश नहीं हो पाया है ।
व्यवहार : प्रति-परिचय (क) व्यवहार मूलपाठ (हस्तलिखित)
यह प्रति जैन विश्व भारती (लाडनूं) हस्तलिखित ग्रन्थालय की है। इसके पत्र १७ व प्रत्येक पत्र में १३ पंक्तियां हैं और प्रत्येक पंक्ति में ४०-४३ अक्षर लिखे हुए हैं । यह प्रति ३ उद्देशक तक "ग" प्रति से प्रायः मिलती है और ३ उद्देशक के आगे ताड़पत्रीय प्रति के सदश है। इसकी लम्बाई १० व चौड़ाई ४ इंच है। प्रति सुन्दर लिखी हुई है । बीच में बावड़ी है । इसके अन्त में लिपि संवत नहीं है। अनुमानत: यह १७वीं शताब्दी की होनी चाहिए। अंतिम प्रशस्ति में लिखा हैग्रंथान ६८८ व्यवहार सुत्तं समत्तं ६८८ कल्याणमस्तु (शुभं भवत) छ।श्री (ख) व्यवहार मूलपाठ (हस्तलिखित टब्बा)
यह प्रति भी उपर्युक्त ग्रन्थालय की है। इसके पत्र ४२ हैं । सुन्दर लिखी हुई है। लिपि संवत् १७६१ है।
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