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________________ २१ अहिज्जिज्जा ॥२॥ जो ज्जागविहीइ वहित्ता एए जो लिहइ सुत्तं अच्छं व ॥ भासेइ य भवियजणो सो पालइ निज्जरा विउला ॥३॥ जस्साढत्ती एए कह विसमप्पंति विग्धरहियस्स । सो लक्खि ज्जइ भव्वो ॥ पुवरिसी एव भासंति ॥४॥छ।। शुभं भवतु ॥श्रीः।। (उ) उत्तराध्ययन पाठ व अवचूरी सहित (हस्तलिखित) यह प्रति जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा, सरदारशहर की है। अनुमानत: सं० १५०० में लिखी हुई है। इसके पत्र ५६ व पृष्ठ ११८ हैं। पत्र १० इंच लम्बे और ४३ इंच चौड़े हैं। पत्र के दोनों तरफ । इंच का मार्जिन है। पाठ और अवचूरी काली स्याही से लिखी हुई हैं । श्लोकांक तथा माजिन को रेखाएं लाल स्याही में हैं। दोनों तरफ के मार्जिन के मध्य भाग में पाठ और चारों तरफ अवचरी है। प्रत्येक पृष्ठ में पाठ की न्यूनतम ८ और अधिकतम १५ पंक्तियां हैं। प्रति के अन्त में निम्नलिखित प्रशस्ति है : इति श्री उत्तराध्ययनावचूरिः समाप्ता ॥ छ ।। श्री रस्तु ।। छ । ए प्रति भ० श्री विद्यासागर सूरि पूसरीया शिष्य शुयवाय कर्मसागरे प्रति लिधी कलकवल रहित सह । (श) उत्तराध्ययन पाठ व अवचूरी सहित (हस्तलिखित) यह प्रति जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा, सरदारशहर की है। विक्रमाब्द १५३५ में लिखी गई है। इसके पत्र ७६ व पृष्ठ १५८ हैं। प्रत्येक पत्र १०१ इंच लम्बा और ४३ इंच चौड़ा है। यह प्रति काली स्याही से स्पष्ट लिखित है। इसके श्लोकांक तथा दोनों तरफ का मार्जिन लाल स्याही में है। प्रत्येक पृष्ठ में पाठ की न्यूनतम ६ और अधिकतम १३ पंक्तियां हैं। अवचूरी मार्जिन तथा पाठ के ऊपर और नीचे के भाग में लिखी हुई है। अवचूरी के अक्षर से पाठ के अक्षर लगभग ड्योढे बड़े हैं। प्रति के अंत में निम्नलिखित प्रशस्ति है: लिखिता श्री उत्तराध्ययनावचूरिः स्वपरोपकृत्यः ।। शुभं भवतु ॥१।। सं० १५३५ वर्ष आसोज सुदि ५ भोमे अद्येह श्री। (स) उत्तराध्ययन सर्वार्थसिद्धि टीका सहित (हस्तलिखित) यह प्रति छापर निवासी मोहनलालजी दुधोडिया के संग्रहालय की है। इसके पत्र ३२३ और पृष्ठ ६४६ हैं किन्तु प्रारम्भ के १६ पत्र प्राप्त नहीं हैं। प्रति बहुत प्राचीन है। अनुमानत: १६वी शताब्दी में लिखी हुई होनी चाहिए। पत्र इतने जीर्ण हैं कि कभी-कभी हाथ के स्पर्श से खिरने लगते हैं। प्रति प्रायः बहुत शुद्ध लिखी हुई है। प्रत्येक पत्र १०१ इंच लम्बा व ४१ इंच चौड़ा है। प्रत्येक पृष्ठ में १५ पंक्तियां व प्रत्येक पंक्ति में लगभग ५३-५४ अक्षर हैं। टीका और पाठ समान अक्षर में ही लिखा हुआ है। (सु) सुखबोधा टोका, नेमिचन्द्राचार्य कृत (मुद्रित) प्रकाशक :--देवचन्द्र लालभाई । (व) बृहद्वृत्ति 'शान्त्याचाय कृत' (मुद्रित-निर्णयसागर प्रेस, बम्बई) प्रकाशक :-देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धारे-ग्रन्थांक ३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003556
Book TitleNavsuttani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages1316
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size29 MB
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